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Saturday 10 December 2011

भगवती शांता परम सर्ग-7

पूरी कथा के लिए 
पर आयें |
-- रविकर
कौला का वियोग 
अंग-अवध छूटे सभी, सृंगी के संग सैर |
शांता साध्वी सी बनी, चाहे सबकी खैर ||

 कौला मुश्किल से सहे, हुई शांता गैर |
खट्टे-मिट्ठे दृश्य सब, गए आँख में तैर ||
  चौपाई 
रावण की दारुण अय्यारी | कौशल्या पर पड़ती भारी ||
कौशल्या का हरण कराये | पेटी में धर नदी बहाए ||

दशरथ संग जटायू धाये | पेटी सागर तट पर पाए ||
नारायण जप नारद आये | कौशल्या संग व्याह कराये ||

अवध नगर में खुशियाँ छाये | खर-दूषण योजना बनाये |
कौशल्या का गर्भ गिराया | पल-पल रावण रचता माया ||

सुग्गासुर आया इक पापी | गिद्धराज ने गर्दन नापी ||
नव-दुर्गा में खीर जिमाये |  नन्हीं-मुन्हीं कन्या आये ||

रानी फिर से गर्भ धारती | कौला विपदा विकट टारती ||
कौशल्या का छद्म वेश धर | सात मास मैके में जाकर ||

रावण के षड्यंत्र काटती | कौशल्या को ख़ुशी बांटती ||
शांता खुशियाँ लेकर आये | कौला को भी पास बुलाये ||

खुशियों पर ग्रहण लग जाता | शांता का इक पैर पिराता ||
नीमसार में सारे आते | दूर-दूर से वैद्य बुलाते ||

दशरथ कौशल्या सम गोती | गोतज से बीमारी होती ||
कन्या को अब गोद दीजिये | औषधि का नित लेप कीजिये ||

अंगदेश के राजा आते | शांता को ले गोद खिलाते ||
चम्पारानी खुब हरसाती | सूनी बगिया खिल-खिल जाती ||

दशरथ सुन्दर नाव सजाते | दास दासियाँ भी भिजवाते ||
कौला बच्ची को बहलाती | रस्ते में दालिम को पाती ||

दालिम सौजा का सौतेला | लड़े बाघ से निपट अकेला ||
 उससे भाई एक बचाए |  एक पूत को बाघ मिटाए ||


राजा देता ग्राम निकाला | किन्तु स्वयं ही उसे संभाला ||
शांता का रक्षक बन जाता | किस्मत पर अपनी मुस्काता ||


शांता अंगदेश आ जाती | कौला औषधि रोज लगाती ||
नामकरण में दशरथ आये | शांता पहला कदम बढाए ||

चम्पारानी गोद खिलाती | पुत्र सोम प्यारा सा पाती ||
कौला भी बन जाती माता | रूपा और बटुक का नाता ||

शांता से ज्यादा गहराता | बटुक पास में उसके जाता ||
गुरुकुल पढ़ने सोम जा रहे | नियमित घर आचार्य आ रहे || 

शांता को वे रोज पढ़ाते | रूपा और बटुक भी जाते ||
आठ साल में पूरी शिक्षा | शांता करती पास परीक्षा ||

वन विहार को शांता जाती | किन्तु महल में नहीं बताती ||
रूपा और बटुक भी जाए | काका अपनी जान लड़ाए ||

मिली ताड़का घेरी काका | काका बोला भाग तडाका ||
जान बची तो लाख उपाया | कई दिनों में काका आया ||

सृन्गेश्वर में सृंगी मिलते | दोनों के मन-हृदय पिघलते ||
शोध पे  लम्बी चर्चा होती | पुत्रकाम का सूत्र पिरोती ||

दशरथ यग्य कराते द्वारे | चार पुत्र पा जाते प्यारे ||
पड़े मुसीबत राम सहारा | भरत लखन शत्रुघ्न  दुलारा || 

शांता की जागी इक इच्छा | शुरू कराऊं नारी शिक्षा ||
कौशल्या शाला वह खोले | आचार्या बाला की हो ले ||

सूखा और अकाल अंग में | मरते जैसे लोग जंग में ||
पूरे साल सूखती धरती | शांता जन-जन के दुःख हरती ||

दोहे 
रो-गाकर करते विदा, छूटा फिर से देस |
किस्मत में उसके लिखा, बार बार परदेस ||

सभी हितैषी छूटते, रिश्ते बने नवीन |
परम बटुक ही है यहाँ, शिक्षा में लवलीन ||

पेटी इक श्रृंगार की,  संग में मंगल-हार |
इक माला रुद्राक्ष की, सृंगी  का उपहार ||

प्रियवर मैं समझी नहीं, भेजा जो रुद्राक्ष |
धारण करने से कहीं, काक होय ताम्राक्ष ||

समझे बिन कैसे धरी, फिर सन्यासिन रूप |
सुख सुविधा सारी तजी, त्याग भूप का कूप ||

निश्छल शांता की हँसी, लेती तब मन -मोह |
प्रतिदिन उनकी प्रीत है,  करती सद-आरोह ||

शाळा को अर्पित किया, सारा मंगल कोष |
मंगल-मंगल हो रहा, मंगलमय संतोष ||

 कन्या हर परिवेश में, पाए शिक्षा दान |
शिक्षित माता दे बना, सचमुच देश महान ||

आधी आबादी अगर, पाए न अधिकार |
सारे शासक-वर्ग को, है सौ-सौ धिक्कार ||

मैंने भेजा धान जब, हमको था यह भान |
रिस्य बूझ लेंगे तुरत,  देंय उचित अस्थान ||  

एक कदम आगे बढे, करवाया एहसास |
चार क्यारियों से किया, मात-पिता के पास ||

आश्रम में शांता 
दो दिन का करके सफ़र, पहुंची कोसी तीर |
आश्रम में स्वागत हुआ, मिटी पंथ की पीर ||

अगला दिन अति व्यस्त था, अति-प्रात: उठ जाय |
आज्ञा लेकर सास की, नित्य कर्म निबटाय ||

कोशी की पूजा करे, कुलदेवी के बाद  |
सृन्गेश्वर को पूजती, मन में अति-अह्लाद ||

सास ससुर के चरण छू, बना रही पकवान |
आश्रम के सब जन बने, शांता के मेहमान ||

बड़ी रसोई में जले, चूल्हे पूरे सात |
दही बड़े जुरिया बनी,  उरद-दाल सह भात ||

आलू-गोभी की पकी, सब्जी भी रसदार |
मेवे वाली खीर से, छाई वहाँ बहार ||

दस पंगत लम्बी लगी, कुल्हड़ पत्तल साज |
भोजन लगी परोसने, अन्नपूर्णा आज ||

परम बटुक संग में लगा, रिस्य सृंग पद भूल |
अतिथि हमारे देवता, सबको किया क़ुबूल ||

परम बटुक से खुश सभी, शारद सदा सहाय |
एक बार के पाठ से, गूढ़ विषय आ जाय ||

पढ़े चिकित्सा शास्त्र वो, विषय बहुत ही गूढ़ ||
परंपरा के ज्ञान पर,  होकर के आरूढ़ ||

मन मानव कल्याण में, धन दौलत को भूल |
दीन-दुखी बीमार की, सेवा बने उसूल ||

नए शोध पर रख रहा, अपनी तीक्ष्ण निगाह |
कम कैसे हो सकेगी, अति-दर्दीली आह|

दीदी की ससुराल में, बनकर सच्चा भाय |
सेवा सुश्रुषा करे, गुरुकुल को महकाय ||

दूर-दूर से आ रहे,  याचक-दाता द्वार |
रोगी भी करवा रहे, आश्रम में उपचार ||

कुछ प्रतिनिधि विनती करें, कृपा कीजिये नाथ |
घाटी की बिगड़ी दशा, नहीं सूझता  पाथ ||
 
देव हिमाचल भूमि में, बिगढ़ रहे हालात  |
वर्षा ऋतु आधी गई, हुई नहीं बरसात ||

खाने के लाले पड़े, नंगे होंय पहाड़ |
हिंसक जीवों की वहाँ, गूंजे लगी दहाड़ ||

देव मनुज गन्धर्व सब, ऋषिवर परजा तोर |
घाटी की विपदा हरो, जन जन रहा अगोर ||

 ऋषी बिबंडक ने कहा, रखिये मन में धीर |
 जल्दी ही मिट जाएगी, यह त्रिशुच की पीर ||

सृंगी से कहने लगे, हुआ पूर इक साल |
शांता को भिजवाइए, अब अपनी ससुराल ||
 
कार्य यहाँ के पूर्ण कर, करिए अब प्रस्थान |
बड़ी समस्या का करें, समुचित शीघ्र निदान ||

हाथ जोड़कर बोलते, सृंगी मन की बात |
सहमत ऋषिवर हो गए, बतिया बड़ी सुहात ||

जाय संभालो राज को, शांता को ले जाव |
पड़े  रास्ते  में  अवध, भाई से मिलवाव ||

मात पिता के चरण छू, परम बटुक ले साथ |
रामचंद्र  को  भेंटते , देव भूमि के पाथ ||

चरण छुवे भ्राता सभी, पाते आशीर्वाद |
शांता को आते रहे,  पूरे  रस्ते  याद ||

दशरथ, तीनों रानियाँ, आवभगत में लाग |
इन अभिनव मेहमान से, भाग अवध के जाग ||

सारी परजा आ गई, करती जय जयकार |
उपहारों का लग गया, बहुत बड़ा अम्बार ||

सृंगी शांता बोलते, हम सन्यासी लोग |
चीजें संचय न करें, करे नहीं अति भोग ||

कृपा करके दीजिये, अनुमति हे श्रीमान |
ढूंढ़ जरूरतमंद को, बांटो यह सामान ||

कौशल्या मानी नहीं, मेवा फल मिष्ठान |
दो दिन खातिर संग में, बाँधीं कुछ पकवान || 

पलकों पर बैठा रहे, देवभूमि के लोग |
भीगी आँखें बरसती, वर्षा का संयोग ||

राजकाज में जा फंसे, रिस्य सृंग महराज |
प्रमुख सभी आने लगे, प्रेम-पालकी साज ||

कर सबको आश्वस्त तब, रिस्य रिसर्चर राज |
कर्म गूढ़ करने लगे, सिरमौरी को साज ||

रिस्य गुफा में कर रहे, बैठ लोक-कल्यान |
बटुक परम चढ़ता रहा, शिक्षा के सोपान ||  

उधर अंग में मच रहा, उथल-पुथल गंभीर |
रूपा को लग ही गए,  कामदेव के तीर ||

अंगराज अब स्वस्थ हैं, महामंत्री  संग |
मुश्किल हल करते रहे, प्रगति-पंथ पर अंग ||

शाला में बाला बढीं, नया भवन बनवाय |
आचार्या बारह नई, माली श्रमिक बुलाय ||

इंतजाम उत्तम किया, फैले यश चहुँ ओर |
पुंड्रा बंग विदेह जन, शाला रहे अगोर ||

परिवर्तन आया सुखद, आगे बढ़ता अंग |
नीति-नियम से चल रही, शाला नूतन ढंग ||

सोम सदा आता रहा,  कन्या-शाला पास |
रूपा से करता रहे, बातें चुप-चुप ख़ास ||

राजमहल जाने लगी, रूपा भी  दो बार |
गंगा तट पर विचरती, आई नई बहार ||

सोम फ़िदा उसपर हुए, मीठीं बातें बोल |
रूपा के तनबदन में, रहे  प्रेम-रस घोल ||

रूपा को व्याकुल करे, शांता केर विछोह |
भटके मन हो बावली, होय सोम से मोह ||

तरुण सोम चंचलमना, चल शाळा की ओर |
मानो कोई खींचता,  कठपुतली की डोर ||
 
शांता नित करती रही, कन्या-शाळा याद |
प्राकृति पहुंचाई वहाँ, रूपा का उन्माद  ||

अनमयस्क सी शांता, रहने लगी उदास |
कार्य सिद्ध करके ऋषी, लौटे शांता पास ||

बारिस की बूंदें गिरीं, बीत रहा इक माह |
मैके जाना चाहिए, शांता करे सलाह || 

फेरे की इक रस्म है, करिए उसको पूर |
नदी मार्ग से जाइए, अंगदेश अति दूर ||

हुई पालकी में विदा, ऊँचीं नीची राह |
धीरे-धीरे छूटते, गिरी कन्दरा गाह ||



तेज धार धीमी हुई, आया सम मैदान |
नाविक गण फिर थामते, यात्रा केर कमान ||
 
निश्चित तिथि पर चल पड़ी, परम बटुक के साथ |
नाव सजा के बैठती, गंगा जल ले माथ ||
नाव-यात्रा 
हरी भरी यह उर्वरा, गंगा का वरदान |
प्रभु की भक्ती से भरा, है चौरस मैदान ||

गंगा जी में मिल रहीं, छोटी नदियाँ आय |
यमुना आई दूर से, देख गंग हरषाय ||

सरस्वती भी हैं यहाँ, त्रिवेणी का धाम |
सुन्दर होती आरती, मुग्ध कर रही शाम ||

संगम पहली मर्तवा, देख प्रफुल्लित होय |
करती संध्या वंदना, अपना बदन भिगोय ||

रात यहीं विश्राम कर, सुबह बढ़ाई नाव |
काशी में दर्शन करे, तन-मन भक्ति-भाव ||

बाढ़ी गंगा जी गजब, थी अथाह जलरास |
नाव चलाने में मगर, बड़े कुशल सब  दास ||

धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |
गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||

आश्विन में बूंदें पड़े, रात्री बाढ़े शीत |
नाविक आगे बढ़ रहे, गाते मीठे गीत ||

ना जाने कब नींद ने, लिया उन्हें भी घेर |
बालू भित्ती में फंसे,  होने लगी कुबेर ||

दोपहर भी बीती वहां, लागे नाहीं दांव |
हिकमत करके हारते, कैसे निकले नाँव ||

टकराने से खुल गया, महत्वपूर्ण इक जोड़ |
पानी अन्दर घुस रहा, उलचें बाहें मोड़ ||

पीछे से आती दिखी, एक बड़ी सी नाव |
मदद मांगते मित्रवर, तट पर नाव कराव ||

पूछतांछ करते पता, एक कोस पर गाँव |
यथाशीघ्र जाओ वहाँ, कारीगर ले आव ||

इक नाविक के संग में, परम बटुक अगवान |
शांता देती एक पण, लाने को सामान ||

दोनों तेजी से गए, गई घरी इक बीत |
दो ही आते दीखते, बदल गई क्या रीत ||

मानव मानव की करे, मदद सदा हरसाय | 
मीठी बोली पर सखे, माटी मोल बिकाय ||

चले मरम्मत बिन नहीं, आगे मेरी नाव |
शांता बोली नाविकों,  तम्बू चलो लगाव ||

आगंतुक को देखकर, शांता है हैरान |
परम बटुक उनमें नहीं, लगे निकलने प्रान ||

नाविक बोला माँ सुनों, भाई बड़ा महान |
महारुजा से ले बचा, तीन जनों की जान ||

घोर संक्रमण से ग्रसित, हुवे गाँव के लोग |
बदन तपे खुब ज्वर चढ़े, जाने कैसा रोग ||

कारीगर चरणन पड़ा, बचा लेव मम ग्राम |
शांता देकर सांत्वना, बोले भज हरिनाम ||

चार घरी में कर दिया, पूर्ण मरम्मत काम |
हाथ जोड़कर बोलता, रात करें विश्राम ||

अगले दिन प्रात: वहाँ, तट पर आये लोग |
गन्ना गुड़ चूड़ा चढ़ा, चढ़ा रहे सब भोग ||

साध्वी शांता के छुवें, आदर से सब पाँव |
एक वृद्ध से जब सुनी, गाँव सुपरिचित नाँव ||


क्या दालिम को जानते, वही रमण के भाय |
अंगदेश जाकर बसे, महाराज ले जाय ||


जय हो देवी शांता, करय लगे जयकार |
दालिम का ही पूत है, करे वहाँ उपचार ||

और दुपहरी में दिखा, बटुक तनिक घबरात |
शांता को खुश देखकर, फिर थोडा मुस्कात ||

पीड़ा सहकर भी करो, दूजे का कल्याण |
यही चिकित्सक कर्म है, मत जाने दो प्राण ||

बटुक परम ज्यों जानता, यह बाबा का ग्राम |
बड़े बुजुर्गों को करे, छूकर पैर प्रणाम ||

औषधि सबको दी बता, दिया सफाई सीख |
मुखिया को समझा दिया, ग्राम आश्वस्त दीख ||

विदा विदाई हो गई, चली दुबारा नाव |
पाल ठीक से बाँध के, थोड़ी गति बढ़ाव ||

इक पण तुमको था दिया, कहाँ गए तुम भूल |
रमण बिचारा कर रहा, अपनी भूल कुबूल ||

वापस पण करने लगा, शांता दी मुसकाय |
भाई रख ले पास में,  काम समय पर आय ||

बटुक कहे दीदी रखो, मुझे पड़े न काम |
मैं तो हूँ शिक्षार्थी, भिक्षाटन हरिनाम ||

जब नाविक को चढ़ गया, रात्री अतिशय ताप |
जड़ी बटुक की कर गई, कम उसका संताप ||

पानी  ढोने का  करे,  जो बन्दा  व्यापार  |
मुई प्यास कैसे भला, सकती उसको मार ||

लहरों के संग खेलना, लहरें जीवन देत |
लहरें ही हैं  जिंदगी, यही बैल हल खेत ||


गंगा उत्तरवाहिनी, बना है सुन्दर घाट |
नाव किनारे पर लगा, घूमी शांता हाट ||

परम बटुक करने लगे, राजनीति पर बात |
कितना होना चाहिए, कर का सद-अनुपात ||

उत्तरदायी राज्य-प्रति, या राजा प्रति होय |
मंत्री का क्या कार्य है, कहिये दीदी सोय ||

विधिसम्मत कैसे रहे, होय न्याय का राज |
राज-पुरुष के दोष पर, उठे कहाँ आवाज ||

प्रमुख विराजें ग्राम में, अंकुश का क्या रूप |
जन कल्याणी कार्य के, कैसे होंय स्वरूप ||

लम्बी चर्चा हो रही, विद्वानों की राय |
राज पक्ष प्रस्तुत करे, दीदी दे समझाय ||

Friday 2 December 2011

भगवती शांता परम सर्ग-6

भाग - 1 

कौशल्या कन्या पाठशाला 
अंगराज के स्वास्थ्य को, ढीला-ढाला पाय |
चम्पारानी की ख़ुशी, सारी गई बिलाय ||

शिक्षा पूरी कर चुके, अपने राजकुमार |
अस्त्र-शस्त्र सब शास्त्र में, पाया ज्ञान अपार ||

व्यवहार-कुशल नीतिज्ञ, वय अट्ठारह साल |
राजा चाहें सोम से, पद युवराज सँभाल ||

शांता आगे बढ़ करे, सारे मंगल कार्य |
बटुक परम साथे लगा, सेवे वह आचार्य ||

गुरुजन के सानिध्य में, उसको होता बोध |
दीदी से कहने लगा, दूर करें अवरोध ||

प्रारम्भिक शिक्षा हुई, थी शांता के संग |
पूरी शिक्षा के बिना, मानव रहे अपंग ||

सुनकर के अच्छा लगा,  देती आशीर्वाद |
सृन्गेश्वर भेजूं  तुझे, समारोप के बाद ||

आया उसको ख्याल इक, रखी बाँध के गाँठ |
कन्याशाला से बढ़ें, अंगदेश  के ठाठ ||

सोम बने युवराज तो, आया श्रावण मास |
सूत्र बाँधती भ्रात कर, बहनों का दिन ख़ास ||

आई श्रावण पूर्णिमा,  सूत्र बटुक को बाँध |
गई सोम को बाँधने, मन में निश्चित साँध ||

राज महल में यह प्रथम,  रक्षा बंधन पर्व |
सोम बने युवराज हैं, होय बहन को गर्व ||

चम्पारानी थी खड़ी, ले आँखों में प्यार |
शांता अपने भ्रातृ की, आरति रही उतार ||

रक्षाबंधन बाँध के, शांता बोली भाय |
मोती-माणिक राखिये, यह सब नहीं सुहाय ||

दीदी खातिर क्या करूँ, पूँछें जब युवराज |
कन्या-शाला दीजिये, सिद्ध कीजिये काज ||

बोले यह संभव नहीं, यह शिक्षा बेकार |
पढ़कर कन्या क्या करे, पाले-पोसे नार ||

कन्याएं बेकार में,  समय करेंगी व्यर्थ  ||
गृह कार्य सिखलाइये, शिक्षा का क्या अर्थ ||

माता ने झटपट किया, उनमे बीचबचाव  |
शिक्षित नारी से सधे, देश नगर घर गाँव ||

वेदों के विपरीत है, नारी शिक्षा बोल |
उद्दत होते सोम्पद, शालाएं मत खोल ||

बोली मैंने भी पढ़ी, शांता कर प्रतिवाद |
वेद-भाष्य रिस्य सृंग का, कोई नहीं विवाद ||

गौशाला को हम चले,  बाकी काम अनेक |
श्रावण बीता जाय पर, हुई न वर्षा एक ||

त्राहि-त्राहि परजा करे, आया अंग अकाल |
खेत धान के सूखते, ठाढ़े कई सवाल ||

गौशाला में आ रहा, बेबस गोधन खूब |
पानी जो बरसा नहीं, जाए जन मन ऊब ||

दूर दूर से आ रहे, गंगाजी के तीर ||
देखों उनकी दुर्दशा, करत घाव गंभीर ||

छोड़े अपने बैल सब, गाय देत गौशाल |
जोहर पोखर सूखते, बाढ़ा बड़ा बवाल ||

सब शिविरों में आ रहे, होता खाली कोष |
कन्या शाला के लिए, मत दे बहना दोष ||

इतने में दालिम दिखा, बोला जय युवराज |
मंत्री-परिषद् बैठती, कुछ आवश्यक काज ||

पढ़ चेहरे के भाव को, दालिम समझा बात ||
शांता बिटिया है दुखी, दुखी दीखती मात ||

दालिम से कहने लगी, परम बटुक की चाह |
पढने की इच्छा प्रबल, दीजे तनिक सलाह ||

जोड़-घटाना जानता, जाने वह इतिहास |
वह भी तो सेवक बने, मात-पिता जब दास ||

लगी कलेजे में यही,  उतरी गहरे जाय |
सोचें न उत्कर्ष की, शांता कस समझाय ||

दुखते दिल से पूछती, अच्छा कहिये तात |
राजमहल के चार कक्ष, इधर कहाँ इफरात ||

चम्पा-रानी भी कहें, हाँ दालिम हाँ बोल |
कन्या-शाला को सके, जिसमें बिटिया खोल ||

हाथ जोड़ करके कहे,  यहाँ नहीं अस्थान |
महल हमारा है बड़ा, मिला हमें जो दान ||

शांता उछली जोर से, हर्षित निकले चीख |
कन्या-शाला के लिए, मांगे शांता भीख ||

शर्मिंदा क्यूँ कर रहीं, हमको ख़ुशी अपार |
ठीक-ठाक करके रखूं, कल मैं कमरे चार ||

माता को लेकर मिली, गई पिता के कक्ष |
अपनी इच्छा को रखा, सुनी राजसी पक्ष ||

सैद्धांतिक सहमति मिली, सौ पण का अनुदान |
कौशल्या शाळा खुली, हो नारी उत्थान ||

दूर दूर के कारवाँ, उनके संग परिवार ||
रूपा शांता संग में,  करने गई प्रचार ||

रुढ़िवादियों ने वहाँ, पूरा किया विरोध |
कई प्रेम से मिल रहे, कई दिखाते क्रोध ||

घर में खाने को नहीं, भटक रहे हो तीर |
जाने कब दुर्भिक्ष में, छोड़े जान शरीर || 

नौ तक की कन्या यहाँ, छोडो मेरे पास |
भोज कराउंगी उन्हें,  पूरे ग्यारह मास ||

इंद्र-देवता जब करें, खुश हो के बरसात |
 तब कन्या ले जाइए, मान लीजिये बात ||

गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |
मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||


धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |
जर जमीन जोरू सकल,इच्छित मिलें पदार्थ ||

चतुर सयानी ये सखी, मीठा मीठा बोल |
तेरह कन्यायें जमा, देती शाला खोल ||

एक कक्ष में दरी थी, उस पर चादर डाल |
तेरह बिस्तर की जगह, पंद्रह की तैयार ||


कक्ष दूसरा बन गया, फिर भोजन भंडार |
कार्यालय तीजा बना, कक्षा बनता चार ||


जिम्मेदारी भोज की, कौला रही उठाय |
सौजा दादी बन गई, बच्चों की प्रिय धाय ||


शांता पहली शिक्षिका, रूपा का सहयोग |
तख्ती खड़िया बँट गई,जमा हुवे कुछ लोग ||


रानी माँ आकर करें, शाळा शुभ-आरम्भ |
आड़े पर आता रहा, कुछ पुरुषों का दम्भ ||


नित्य कर्म करवा रहीं, सौजा रूपा साथ |
आई रमणी रमण की, लगा रही खुद हाथ ||


पहले दिन की प्रार्थना, सादर शारद केर |
एकदन्त की विनय से, कटते बाधा-फेर ||


स्वस्थ बदन ही सह सके, सांसारिक सब भार |
बुद्धी भी निर्मल रहे, बढ़े सकल परिवार ||


रूपा के व्यायाम से, बच्चे थक के चूर ||
शुद्ध दूध मिलता उन्हें, घुघनी भी भरपूर ||


पहली कक्षा में करें, बच्चे कुछ अभ्यास ||
गोला रोटी सा करे, रेखा जैसे बांस ||


एक घरी अभ्यास कर, गिनती सीखे जांय ||
दस तक की गिनती गिनें, रूपा रही बताय ||


सृंगी के अभिलेख से, सीखी थी इक बात |
पारेन्द्रिय अभ्यास से, हुई स्वयं निष्णात ||


दोपहर में छुट्टी हुई, पंगत सभी लगाय |
हाथ-पैर मुंह धोय के, दाल-भात सब खाय ||


एक एक केला मिला, करते सब विश्राम |
कार्यालय में आय के, करे शांता काम ||


खेलों की सूची दिया, रूपा को समझाय |
दो घंटे का खेल हो, संध्या इन्हें जगाय ||


गौशाला से दूध का, भरके पात्र  मंगाय |
संध्या में कर वंदना, रोटी खीर जिमाय ||


सौजा दादी से कही,  एक कहानी रोज |
बच्चों को बतलाइये, रखिये दिन में खोज ||


राज-महल में शांता, बैठी ध्यान लगाय |
पावन मन्त्रों को जपे, दूरानुभूति आय ||


सृंगी के मस्तिष्क की, मिलती इन्हें तरंग ||
वार्ता होने लग पड़ी, रोमांचित हर अंग ||


सादर कर परनाम फिर, पूछी सब कुशलात ||
अंगदेश के बोलती, अपने सब हालात |


मिलता जब आशीष तो, जाय नेह में डूब |
बटुक परम भेजूं वहाँ, पढना चाहे खूब ||


स्वीकार करते ऋषी, करती ये अनुरोध |
एक शिक्षिका भेजिए, देवे  कन्या-बोध ||


माता खट-खट कर रहीं, ये बातों में लीन |
टूटा जो संपर्क तो,तड़पी जैसे  मीन ||


दालिम को जाकर मिली, अगले दिन समझाय |
परम बटुक गुरुकुल चले, हर्षित पढने जाय ||


वय है चौदह वर्ष की, पढने में था तेज |
आगे शिक्षा के लिए, रही शांता भेज ||


इक हफ्ते में आ गई, माँ का लेकर रूप |
नई शिक्षिका करे सब, शाळा के अनुरूप ||
भाग-2
अंग-देश में अकाल 
एवं 
शाळा का हाल  
भादों की बरसात भी, ठेंगा रही दिखाय |
बूंद बूंद को तरसती, धरती फट फट जाय ||

झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||

खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||

जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रिशुच सहे, त्रायमाण दे त्राण ||

अंगदेश की अति-कठिन, कड़ी परीक्षा होय |
 नगर सेठ मंत्री सभी, रहे काम में खोय ||

शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, और अधिक तैयार ||

शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सन्यासिन सी बन रहे, कन्या रही पढ़ाय ||

भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
वैद्य-राज की औषधी, माँ का देत दुलार ||

कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, सबका मन बहलाय ||

कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||

अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||

धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||

कैकय का गेंहूँ वणिक,  बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज पर बांटते, सबको धान तमाम ||

अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ||

लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||

किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||

लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||

शाला आये सोम्पद, रूपा से टकरात |
सुन्दरता ऐसी लगी, जैसे हो अभिजात ||

कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, वे दोनों बतलाय ||

सावन में भी न हुई, अब तक इक बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||

भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
मुझको न एतराज है, मिटे विकट संताप ||

शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन कर रहें, हो सबका कल्याण ||

तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||

रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||

शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, हो जाये बरसात ||

शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
 मित्रों ने सच ही कहा, रूपा है उत्कृष्ट ||

कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||

जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||

बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||

गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||

हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ | 
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||


संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||

परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||

लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||


परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष || 


दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||

लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय  |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||

भाग-3
स्त्री-शिक्षा पर लिखा,  सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीयी ज्ञान से, रही शांता देख ||

धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||

नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||

मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||

व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||

सावन में पूरे  हुए,  पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||

कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||

ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||

करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव  |
दिन बीते कुल तीन सौ, बापू वापस आव ||

आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||

मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना,  राखी का त्योहार ||

स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||

दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे देत विसार ||


पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||


शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||


अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||
बारह बाला घर गईं, थी जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के आभार ||

नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||

दस की बाला को सिखा,  निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||


वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||


बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||

सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||

इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||

जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||

बर्बादी खाद्यान  की, लो इकदम से रोक  | 
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||

गुरुकुल के आचार्य का, प्रस्तुत है उदबोध ||
नारी शिक्षा पर रखें, अपने शाश्वत शोध ||


दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||


और हजारों गुनी है, इक माता की शान |
उनकी शिक्षा सर्वदा, उत्तम और महान ||


गार्गी मैत्रेयी सरिस, आचार्या कहलांय |

गुरु पत्नी आचार्यिनी, कही सदा ही जाँय ||


कात्यायन  की वर्तिका,  में सीधा उल्लेख |
महिला लिखती व्याकरण, अति प्रभावी लेख ||


महिला शिक्षा पर करे, जो भी खड़े सवाल |
पतंजलि को देखिये, आग्रह-पूर्व निकाल ||

शांता जी ने है किया, बड़ा अनोखा कार्य |
देता खुब आशीष हूँ, मै उनका आचार्य ||

भेजूंगा कल पाठ्यक्रम, पांच साल का ज्ञान |
तीन वर्ष में ये करें, कन्या गुण की खान ||

अब राजा अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||

शाळा की चिंता लिए, दुरानुभूती साध |
सृंगी से करने लगी, चर्चा परम अगाध ||

विस्तृत चर्चा हो गई, एक पाख ही हाथ |
छूटेगा सचमुच सकल, कन्याओं का साथ ||

 करे व्यवस्था रोज ही, सुदृढ़ अति मजबूत |
सृन्गेश्वर की शिक्षिका, पाती शक्ति अकूत ||

आचार्या प्रधान बन, लेत व्यवस्था हाथ |
सौजा कौला साथ में, रूपा का भी साथ ||

ब्रह्मावादिन आत्रेयी, करती अग्निहोत्र |
बालाओं की बन रही, संस्कार की स्रोत्र ||

साध्यवधू शांता करे, सृगेश्वर का ध्यान |
सखियों के सहयोग से, कार्य हुए आसान ||