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-- रविकर
कौला का वियोग
अंग-अवध छूटे सभी, सृंगी के संग सैर |
शांता साध्वी सी बनी, चाहे सबकी खैर ||
कौला मुश्किल से सहे, हुई शांता गैर |
खट्टे-मिट्ठे दृश्य सब, गए आँख में तैर ||
चौपाई
रावण की दारुण अय्यारी | कौशल्या पर पड़ती भारी ||
कौशल्या का हरण कराये | पेटी में धर नदी बहाए ||
दशरथ संग जटायू धाये | पेटी सागर तट पर पाए ||
नारायण जप नारद आये | कौशल्या संग व्याह कराये ||
अवध नगर में खुशियाँ छाये | खर-दूषण योजना बनाये |
कौशल्या का गर्भ गिराया | पल-पल रावण रचता माया ||
सुग्गासुर आया इक पापी | गिद्धराज ने गर्दन नापी ||
नव-दुर्गा में खीर जिमाये | नन्हीं-मुन्हीं कन्या आये ||
रानी फिर से गर्भ धारती | कौला विपदा विकट टारती ||
कौशल्या का छद्म वेश धर | सात मास मैके में जाकर ||
रावण के षड्यंत्र काटती | कौशल्या को ख़ुशी बांटती ||
शांता खुशियाँ लेकर आये | कौला को भी पास बुलाये ||
खुशियों पर ग्रहण लग जाता | शांता का इक पैर पिराता ||
नीमसार में सारे आते | दूर-दूर से वैद्य बुलाते ||
दशरथ कौशल्या सम गोती | गोतज से बीमारी होती ||
कन्या को अब गोद दीजिये | औषधि का नित लेप कीजिये ||
अंगदेश के राजा आते | शांता को ले गोद खिलाते ||
चम्पारानी खुब हरसाती | सूनी बगिया खिल-खिल जाती ||
दशरथ सुन्दर नाव सजाते | दास दासियाँ भी भिजवाते ||
कौला बच्ची को बहलाती | रस्ते में दालिम को पाती ||
दालिम सौजा का सौतेला | लड़े बाघ से निपट अकेला ||
उससे भाई एक बचाए | एक पूत को बाघ मिटाए ||
राजा देता ग्राम निकाला | किन्तु स्वयं ही उसे संभाला ||
शांता का रक्षक बन जाता | किस्मत पर अपनी मुस्काता ||
शांता अंगदेश आ जाती | कौला औषधि रोज लगाती ||
नामकरण में दशरथ आये | शांता पहला कदम बढाए ||
दशरथ सुन्दर नाव सजाते | दास दासियाँ भी भिजवाते ||
कौला बच्ची को बहलाती | रस्ते में दालिम को पाती ||
दालिम सौजा का सौतेला | लड़े बाघ से निपट अकेला ||
उससे भाई एक बचाए | एक पूत को बाघ मिटाए ||
राजा देता ग्राम निकाला | किन्तु स्वयं ही उसे संभाला ||
शांता का रक्षक बन जाता | किस्मत पर अपनी मुस्काता ||
शांता अंगदेश आ जाती | कौला औषधि रोज लगाती ||
नामकरण में दशरथ आये | शांता पहला कदम बढाए ||
चम्पारानी गोद खिलाती | पुत्र सोम प्यारा सा पाती ||
कौला भी बन जाती माता | रूपा और बटुक का नाता ||
शांता से ज्यादा गहराता | बटुक पास में उसके जाता ||
गुरुकुल पढ़ने सोम जा रहे | नियमित घर आचार्य आ रहे ||
शांता को वे रोज पढ़ाते | रूपा और बटुक भी जाते ||
आठ साल में पूरी शिक्षा | शांता करती पास परीक्षा ||
वन विहार को शांता जाती | किन्तु महल में नहीं बताती ||
रूपा और बटुक भी जाए | काका अपनी जान लड़ाए ||
मिली ताड़का घेरी काका | काका बोला भाग तडाका ||
जान बची तो लाख उपाया | कई दिनों में काका आया ||
सृन्गेश्वर में सृंगी मिलते | दोनों के मन-हृदय पिघलते ||
शोध पे लम्बी चर्चा होती | पुत्रकाम का सूत्र पिरोती ||
दशरथ यग्य कराते द्वारे | चार पुत्र पा जाते प्यारे ||
पड़े मुसीबत राम सहारा | भरत लखन शत्रुघ्न दुलारा ||
पड़े मुसीबत राम सहारा | भरत लखन शत्रुघ्न दुलारा ||
शांता की जागी इक इच्छा | शुरू कराऊं नारी शिक्षा ||
कौशल्या शाला वह खोले | आचार्या बाला की हो ले ||
सूखा और अकाल अंग में | मरते जैसे लोग जंग में ||
पूरे साल सूखती धरती | शांता जन-जन के दुःख हरती ||
दोहे
रो-गाकर करते विदा, छूटा फिर से देस |
किस्मत में उसके लिखा, बार बार परदेस ||
सभी हितैषी छूटते, रिश्ते बने नवीन |
परम बटुक ही है यहाँ, शिक्षा में लवलीन ||
पेटी इक श्रृंगार की, संग में मंगल-हार |
इक माला रुद्राक्ष की, सृंगी का उपहार ||
प्रियवर मैं समझी नहीं, भेजा जो रुद्राक्ष |
धारण करने से कहीं, काक होय ताम्राक्ष ||
समझे बिन कैसे धरी, फिर सन्यासिन रूप |
सुख सुविधा सारी तजी, त्याग भूप का कूप ||
निश्छल शांता की हँसी, लेती तब मन -मोह |
प्रतिदिन उनकी प्रीत है, करती सद-आरोह ||
शाळा को अर्पित किया, सारा मंगल कोष |
मंगल-मंगल हो रहा, मंगलमय संतोष ||
कन्या हर परिवेश में, पाए शिक्षा दान |
शिक्षित माता दे बना, सचमुच देश महान ||
आधी आबादी अगर, पाए न अधिकार |
सारे शासक-वर्ग को, है सौ-सौ धिक्कार ||
मैंने भेजा धान जब, हमको था यह भान |
रिस्य बूझ लेंगे तुरत, देंय उचित अस्थान ||
एक कदम आगे बढे, करवाया एहसास |
चार क्यारियों से किया, मात-पिता के पास ||
आश्रम में शांता
दो दिन का करके सफ़र, पहुंची कोसी तीर |
आश्रम में स्वागत हुआ, मिटी पंथ की पीर ||
अगला दिन अति व्यस्त था, अति-प्रात: उठ जाय |
आज्ञा लेकर सास की, नित्य कर्म निबटाय ||
कोशी की पूजा करे, कुलदेवी के बाद |
सृन्गेश्वर को पूजती, मन में अति-अह्लाद ||
सास ससुर के चरण छू, बना रही पकवान |
आश्रम के सब जन बने, शांता के मेहमान ||
बड़ी रसोई में जले, चूल्हे पूरे सात |
दही बड़े जुरिया बनी, उरद-दाल सह भात ||
आलू-गोभी की पकी, सब्जी भी रसदार |
मेवे वाली खीर से, छाई वहाँ बहार ||
दस पंगत लम्बी लगी, कुल्हड़ पत्तल साज |
भोजन लगी परोसने, अन्नपूर्णा आज ||
परम बटुक संग में लगा, रिस्य सृंग पद भूल |
अतिथि हमारे देवता, सबको किया क़ुबूल ||
परम बटुक से खुश सभी, शारद सदा सहाय |
एक बार के पाठ से, गूढ़ विषय आ जाय ||
पढ़े चिकित्सा शास्त्र वो, विषय बहुत ही गूढ़ ||
परंपरा के ज्ञान पर, होकर के आरूढ़ ||
मन मानव कल्याण में, धन दौलत को भूल |
दीन-दुखी बीमार की, सेवा बने उसूल ||
नए शोध पर रख रहा, अपनी तीक्ष्ण निगाह |
कम कैसे हो सकेगी, अति-दर्दीली आह|
दीदी की ससुराल में, बनकर सच्चा भाय |
सेवा सुश्रुषा करे, गुरुकुल को महकाय ||
दूर-दूर से आ रहे, याचक-दाता द्वार |
रोगी भी करवा रहे, आश्रम में उपचार ||
कुछ प्रतिनिधि विनती करें, कृपा कीजिये नाथ |
घाटी की बिगड़ी दशा, नहीं सूझता पाथ ||
देव हिमाचल भूमि में, बिगढ़ रहे हालात |
वर्षा ऋतु आधी गई, हुई नहीं बरसात ||
खाने के लाले पड़े, नंगे होंय पहाड़ |
हिंसक जीवों की वहाँ, गूंजे लगी दहाड़ ||
देव मनुज गन्धर्व सब, ऋषिवर परजा तोर |
घाटी की विपदा हरो, जन जन रहा अगोर ||
ऋषी बिबंडक ने कहा, रखिये मन में धीर |
जल्दी ही मिट जाएगी, यह त्रिशुच की पीर ||
सृंगी से कहने लगे, हुआ पूर इक साल |
शांता को भिजवाइए, अब अपनी ससुराल ||
कार्य यहाँ के पूर्ण कर, करिए अब प्रस्थान |
बड़ी समस्या का करें, समुचित शीघ्र निदान ||
हाथ जोड़कर बोलते, सृंगी मन की बात |
सहमत ऋषिवर हो गए, बतिया बड़ी सुहात ||
जाय संभालो राज को, शांता को ले जाव |
पड़े रास्ते में अवध, भाई से मिलवाव ||
मात पिता के चरण छू, परम बटुक ले साथ |
रामचंद्र को भेंटते , देव भूमि के पाथ ||
चरण छुवे भ्राता सभी, पाते आशीर्वाद |
शांता को आते रहे, पूरे रस्ते याद ||
दशरथ, तीनों रानियाँ, आवभगत में लाग |
इन अभिनव मेहमान से, भाग अवध के जाग ||
सारी परजा आ गई, करती जय जयकार |
उपहारों का लग गया, बहुत बड़ा अम्बार ||
सृंगी शांता बोलते, हम सन्यासी लोग |
चीजें संचय न करें, करे नहीं अति भोग ||
कृपा करके दीजिये, अनुमति हे श्रीमान |
ढूंढ़ जरूरतमंद को, बांटो यह सामान ||
कौशल्या मानी नहीं, मेवा फल मिष्ठान |
दो दिन खातिर संग में, बाँधीं कुछ पकवान ||
पलकों पर बैठा रहे, देवभूमि के लोग |
भीगी आँखें बरसती, वर्षा का संयोग ||
राजकाज में जा फंसे, रिस्य सृंग महराज |
प्रमुख सभी आने लगे, प्रेम-पालकी साज ||
कर सबको आश्वस्त तब, रिस्य रिसर्चर राज |
कर्म गूढ़ करने लगे, सिरमौरी को साज ||
रिस्य गुफा में कर रहे, बैठ लोक-कल्यान |
बटुक परम चढ़ता रहा, शिक्षा के सोपान ||
उधर अंग में मच रहा, उथल-पुथल गंभीर |
रूपा को लग ही गए, कामदेव के तीर ||
अंगराज अब स्वस्थ हैं, महामंत्री संग |
मुश्किल हल करते रहे, प्रगति-पंथ पर अंग ||
शाला में बाला बढीं, नया भवन बनवाय |
आचार्या बारह नई, माली श्रमिक बुलाय ||
इंतजाम उत्तम किया, फैले यश चहुँ ओर |
पुंड्रा बंग विदेह जन, शाला रहे अगोर ||
परिवर्तन आया सुखद, आगे बढ़ता अंग |
नीति-नियम से चल रही, शाला नूतन ढंग ||
सोम सदा आता रहा, कन्या-शाला पास |
रूपा से करता रहे, बातें चुप-चुप ख़ास ||
राजमहल जाने लगी, रूपा भी दो बार |
गंगा तट पर विचरती, आई नई बहार ||
सोम फ़िदा उसपर हुए, मीठीं बातें बोल |
रूपा के तनबदन में, रहे प्रेम-रस घोल ||
रूपा को व्याकुल करे, शांता केर विछोह |
भटके मन हो बावली, होय सोम से मोह ||
तरुण सोम चंचलमना, चल शाळा की ओर |
मानो कोई खींचता, कठपुतली की डोर ||
शांता नित करती रही, कन्या-शाळा याद |
प्राकृति पहुंचाई वहाँ, रूपा का उन्माद ||
अनमयस्क सी शांता, रहने लगी उदास |
कार्य सिद्ध करके ऋषी, लौटे शांता पास ||
बारिस की बूंदें गिरीं, बीत रहा इक माह |
मैके जाना चाहिए, शांता करे सलाह ||
फेरे की इक रस्म है, करिए उसको पूर |
नदी मार्ग से जाइए, अंगदेश अति दूर ||
हुई पालकी में विदा, ऊँचीं नीची राह |
धीरे-धीरे छूटते, गिरी कन्दरा गाह ||
तेज धार धीमी हुई, आया सम मैदान |
नाविक गण फिर थामते, यात्रा केर कमान ||
हुई पालकी में विदा, ऊँचीं नीची राह |
धीरे-धीरे छूटते, गिरी कन्दरा गाह ||
तेज धार धीमी हुई, आया सम मैदान |
नाविक गण फिर थामते, यात्रा केर कमान ||
निश्चित तिथि पर चल पड़ी, परम बटुक के साथ |
नाव सजा के बैठती, गंगा जल ले माथ ||
नाव-यात्रा
हरी भरी यह उर्वरा, गंगा का वरदान |
प्रभु की भक्ती से भरा, है चौरस मैदान ||
गंगा जी में मिल रहीं, छोटी नदियाँ आय |
यमुना आई दूर से, देख गंग हरषाय ||
सरस्वती भी हैं यहाँ, त्रिवेणी का धाम |
सुन्दर होती आरती, मुग्ध कर रही शाम ||
संगम पहली मर्तवा, देख प्रफुल्लित होय |
करती संध्या वंदना, अपना बदन भिगोय ||
रात यहीं विश्राम कर, सुबह बढ़ाई नाव |
काशी में दर्शन करे, तन-मन भक्ति-भाव ||
बाढ़ी गंगा जी गजब, थी अथाह जलरास |
नाव चलाने में मगर, बड़े कुशल सब दास ||
धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |
गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||
धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |
गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||
आश्विन में बूंदें पड़े, रात्री बाढ़े शीत |
नाविक आगे बढ़ रहे, गाते मीठे गीत ||
ना जाने कब नींद ने, लिया उन्हें भी घेर |
बालू भित्ती में फंसे, होने लगी कुबेर ||
दोपहर भी बीती वहां, लागे नाहीं दांव |
हिकमत करके हारते, कैसे निकले नाँव ||
टकराने से खुल गया, महत्वपूर्ण इक जोड़ |
पानी अन्दर घुस रहा, उलचें बाहें मोड़ ||
पीछे से आती दिखी, एक बड़ी सी नाव |
मदद मांगते मित्रवर, तट पर नाव कराव ||
पूछतांछ करते पता, एक कोस पर गाँव |
यथाशीघ्र जाओ वहाँ, कारीगर ले आव ||
इक नाविक के संग में, परम बटुक अगवान |
शांता देती एक पण, लाने को सामान ||
दोनों तेजी से गए, गई घरी इक बीत |
दो ही आते दीखते, बदल गई क्या रीत ||
मानव मानव की करे, मदद सदा हरसाय |
मीठी बोली पर सखे, माटी मोल बिकाय ||
चले मरम्मत बिन नहीं, आगे मेरी नाव |
शांता बोली नाविकों, तम्बू चलो लगाव ||
आगंतुक को देखकर, शांता है हैरान |
परम बटुक उनमें नहीं, लगे निकलने प्रान ||
नाविक बोला माँ सुनों, भाई बड़ा महान |
महारुजा से ले बचा, तीन जनों की जान ||
घोर संक्रमण से ग्रसित, हुवे गाँव के लोग |
बदन तपे खुब ज्वर चढ़े, जाने कैसा रोग ||
कारीगर चरणन पड़ा, बचा लेव मम ग्राम |
शांता देकर सांत्वना, बोले भज हरिनाम ||
चार घरी में कर दिया, पूर्ण मरम्मत काम |
हाथ जोड़कर बोलता, रात करें विश्राम ||
अगले दिन प्रात: वहाँ, तट पर आये लोग |
गन्ना गुड़ चूड़ा चढ़ा, चढ़ा रहे सब भोग ||
साध्वी शांता के छुवें, आदर से सब पाँव |
एक वृद्ध से जब सुनी, गाँव सुपरिचित नाँव ||
क्या दालिम को जानते, वही रमण के भाय |
अंगदेश जाकर बसे, महाराज ले जाय ||
जय हो देवी शांता, करय लगे जयकार |
दालिम का ही पूत है, करे वहाँ उपचार ||
साध्वी शांता के छुवें, आदर से सब पाँव |
एक वृद्ध से जब सुनी, गाँव सुपरिचित नाँव ||
क्या दालिम को जानते, वही रमण के भाय |
अंगदेश जाकर बसे, महाराज ले जाय ||
जय हो देवी शांता, करय लगे जयकार |
दालिम का ही पूत है, करे वहाँ उपचार ||
और दुपहरी में दिखा, बटुक तनिक घबरात |
शांता को खुश देखकर, फिर थोडा मुस्कात ||
पीड़ा सहकर भी करो, दूजे का कल्याण |
यही चिकित्सक कर्म है, मत जाने दो प्राण ||
बटुक परम ज्यों जानता, यह बाबा का ग्राम |
बड़े बुजुर्गों को करे, छूकर पैर प्रणाम ||
बटुक परम ज्यों जानता, यह बाबा का ग्राम |
बड़े बुजुर्गों को करे, छूकर पैर प्रणाम ||
औषधि सबको दी बता, दिया सफाई सीख |
मुखिया को समझा दिया, ग्राम आश्वस्त दीख ||
विदा विदाई हो गई, चली दुबारा नाव |
पाल ठीक से बाँध के, थोड़ी गति बढ़ाव ||
इक पण तुमको था दिया, कहाँ गए तुम भूल |
रमण बिचारा कर रहा, अपनी भूल कुबूल ||
वापस पण करने लगा, शांता दी मुसकाय |
भाई रख ले पास में, काम समय पर आय ||
बटुक कहे दीदी रखो, मुझे पड़े न काम |
मैं तो हूँ शिक्षार्थी, भिक्षाटन हरिनाम ||
जब नाविक को चढ़ गया, रात्री अतिशय ताप |
जड़ी बटुक की कर गई, कम उसका संताप ||
पानी ढोने का करे, जो बन्दा व्यापार |
मुई प्यास कैसे भला, सकती उसको मार ||
लहरों के संग खेलना, लहरें जीवन देत |
लहरें ही हैं जिंदगी, यही बैल हल खेत ||
गंगा उत्तरवाहिनी, बना है सुन्दर घाट |
नाव किनारे पर लगा, घूमी शांता हाट ||
लहरों के संग खेलना, लहरें जीवन देत |
लहरें ही हैं जिंदगी, यही बैल हल खेत ||
गंगा उत्तरवाहिनी, बना है सुन्दर घाट |
नाव किनारे पर लगा, घूमी शांता हाट ||
परम बटुक करने लगे, राजनीति पर बात |
कितना होना चाहिए, कर का सद-अनुपात ||
उत्तरदायी राज्य-प्रति, या राजा प्रति होय |
मंत्री का क्या कार्य है, कहिये दीदी सोय ||
विधिसम्मत कैसे रहे, होय न्याय का राज |
राज-पुरुष के दोष पर, उठे कहाँ आवाज ||
प्रमुख विराजें ग्राम में, अंकुश का क्या रूप |
जन कल्याणी कार्य के, कैसे होंय स्वरूप ||
लम्बी चर्चा हो रही, विद्वानों की राय |
राज पक्ष प्रस्तुत करे, दीदी दे समझाय ||
कुछ पढ़ा-सा लग रहा है।
ReplyDeleteबहुत रोचक और मनहर पोस्ट!
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