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Sunday, 27 November 2011

भगवती शांता परम : सर्ग-4

शिक्षा और संस्कार
भाग-1
शान्ता के चरण

चले घुटुरवन शान्ता, सारा महल उजेर |
दास-दासियों ने रखा, राज कुमारी घेर ||

सबसे प्रिय उसको लगे, अपनी माँ की गोद |
माँ बोले जब  तोतली, होवे महा विनोद ||

कौला दालिम जोहते, बैठे अपनी बाट |
कौला पैरों को मले, हलके-फुल्के डांट ||

दालिम टहलाता रहे, करवाए अभ्यास |
बारह महिने  में चली, करके स्वयं प्रयास ||

हर्षित सारा महल था, भेज अवध सन्देश |
शान्ता के पहले कदम, सबको लगे विशेष ||

दशरथ कौशल्या सहित, लाये रथ को  तेज |
पग धरते देखी सुता, पहुँची ठण्ड करेज || 

कौशल्या काकी हुई, काका भूप कहाँय |
सरयू-दर्शन का वहाँ, न्यौता देते जाँय ||

एक  मास के बाद में, शान्ता रानी संग |
गए अवधपुर घूमने, देख प्रजा थी दंग || 

कौला को दालिम मिला, होनहार बलवान |
दासी सब ईर्ष्या करें, तनिकौ नहीं सुहान ||

काकी काका के यहाँ, रही शान्ता मस्त |
दौड़ा-दौड़ा के करे, कौला को वह पस्त ||

अपने घर फिर आ गई, एक पाख के बाद |
राजा ने पाया तभी, महा-मस्त संवाद ||

प्रथम चरण की धमक के, लक्षण बड़े महान |
हैं रानी चम्पावती,  इक शरीर दो जान ||

हर्षित भूपति नाचते, बढ़ा और भी प्यार |
ठुमक-ठुमक कर शान्ता, होती पीठ सवार ||

पैरों में पायल पड़े, झुन झुन बाजे खूब |
आनंदित माता पिता, प्यार में जाएँ डूब ||

शान्ता माता से हुई, किन्तु तनिक अब दूर |
पर कौला देती उसे, प्यार सदा भरपूर ||

राजा भी रखते रहे, बेटी का खुब ध्यान |
 अंगराज को मिल गई, एक और संतान ||

रानी पाई पुत्र को, शान्ता पाई भाय |
देख देख के भ्रात को, मन उसका हरसाय ||

नारी का पुत्री जनम, सहज सरलतम सोझ |
सज्जन रक्षे भ्रूण को, दुर्जन मारे खोज ||

नारी  बहना  बने जो, हो दूजी संतान
होवे दुल्हन जब मिटे, दाहिज का व्यवधान ||

नारी का है श्रेष्ठतम, ममतामय  अहसास |
बच्चा पोसे गर्भ में,  काया महक सुबास ||

 कौला भी माता बनी , दालिम बनता बाप |
पुत्री संग रहने लगे, मिटे सकल संताप ||

फिर से कौला माँ बनी, पाई सुन्दर पूत |
भाई बहना की बनी, पावन जोड़ी नूत ||

शान्ता होती सात की, पांच बरस का सोम |
परम बटुक छोटा जपे, संग में सबके ॐ ||

कौला नियमित लेपती, औषधि वाला तेल |
दालिम रक्षक बन रहे, रोज कराये खेल ||


जबसे शान्ता है सुनी, गुरुकुल जाए सोम |
गुमसुम सी रहने जगी, प्राकृति हुई विलोम ||


माता से वह जिद करे, जाऊँगी उस ठौर |
भाई के संग ही रहूँ, यहाँ रहूँ ना और ||



माता समझाने लगी, कौला रही बताय |
यहीं महल में पाठ का, करती आज उपाय ||



गुरुकुल से आये वहाँ, तेजस्वी इक शिष्य |
शान्ता संग यूँ सुधरता, रूपा केर भविष्य ||



दीदी का होकर रहे, कौला दालिम पूत |
 रक्षाबंधन में बंधे, उसको पहला सूत ||



बाँधे भैया सोम के, गुरुकुल में फिर जाय |
प्रभु से विनती कर कहे, हरिये सकल बलाय ||



दालिम को मिलती नई, जिम्मेदारी गूढ़ |
राजमहल का प्रमुख बन, हँसता जाए मूढ़ ||
 
दालिम से कौला कही, सुनो बात चितलाय |
भाई को ले आइये, माता लेव बुलाय ||

सुख में अपने साथ हों, संग रहे परिवार |
माता का आभार कर, यही परम सुविचार ||

संदेसा भेजा तुरत, आई सौजा पास |
बीती बातें भूलती, नए नए एहसास ||

छोटा भाई भी हुआ, तगड़ा और बलिष्ठ |
दालिम सा ही था रमण, विनयशील व शिष्ट ||

रमण सुरक्षा में लगा, शान्ता के तुरन्त |
 रानी माँ भी खुश हुई, देख शिष्ट बलवंत ||

सौजा रूपा बटुक का, हर पल राखे ध्यान |
रानी की सेवा करे, कौला इस दरम्यान ||

राज वैद्य आते रहे, करने को उपचार |
चार बरस में मिट गए, सारे अंग विकार ||


एक दिवस की बात है, बैठ धूप सब खाँय |
घटना बारह बरस की, सौजा रही सुनाय ||

 सौजा दालिम से कहे, वह आतंकी बाघ |
बारह मारे पूस में, पांच मनुज को माघ ||

सेनापति ने रात में, चारा रखा लगाय |
पास ग्राम से किन्तु वह, गया वृद्ध को खाय ||

नरभक्षी पागल हुआ, साक्षात् बन काल |
पशुओं को छूता नहीं, फाड़े मानव खाल ||

चारा बनने के लिए, कोई न तैयार |
बकरा बांधे नित करे, महिना होते पार ||

एक रात में जब सभी, बैठे घात लगाय |
स्त्री छाया इक दिखी, अंधियारे में जाय ||

एक शिला पर जम गई, उस फागुन की रात |
आखेटक दल के सभी, सेनापति घबरात ||

बिना योजना के जमी, वह अबला बलवीर |
हाथों में भाला उठा, सजा धनुष पर तीर ||

तीन घरी बीती मगर,  लगा टकटकी दूर |
राह शिकारी देखते, आये बाघ जरूर ||

फगुआ गाने में मगन, गाये मादक गीत |
साया इक आते दिखी, बोली कोयल मीत ||

होते ही संकेत के,  देते धावा बोल |
घोर विषैले तीर से, गया बाघ झट डोल ||

भालों के वे वार भी, बेहद थे गंभीर ||
छाती फाड़ा बाघ की, माथा देता चीर ||

शान्ता चिंतित दिख रही, बोली दादी बोल |
उस नारी का क्या हुआ, जिसका कर्म अमोल ||

सौजा बोली कुछ नहीं, मंद मंद मुसकाय |
माँ के चरणों को छुवे, दालिम बाहर जाय ||

सौजा ने ऐसे किया, पूरा पश्चाताप |
निश्छल दालिम के लिए,  वर है माँ का शाप ||


 शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |
पाक कला संगीत के, सीखे सकल सऊर || 

शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |
 भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||

गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |
नई सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||

अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |
राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||

कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |
बेटी को देकर गए, इक रथ सुन्दर साज ||

रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |
रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||

रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |
रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||

बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |
शान्ता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||

फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |
शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कर धाय ||
  भाग-2
चिन्तित अवध
शान्ता तो खुशहाल है, दशरथ चिन्तित खूब |
कौशल्या परजा रही, गम-सागर में डूब ||

हद  से  होता  पार  जब, दोनों  का  अवसाद |
अंगदेश को चल पड़ें,  कभी कहीं अपवाद ||

चार वर्ष तक न हुई, कोई जब संतान |
दशरथ तो चिंतित रहें, कौशल्या उकतान ||

हो रानी की आत्मा, इकदम से बेचैन |
ढूंढ़ दूसरी लाइए, निकसे अटपट बैन |

हक्का-बक्का रह गए, सुनकर के महिपाल |
कौशल्या अनुनय करे, उसका हृदय विशाल ||

संग में मैं उसके रहूँ, अपनी बहना मान |
कभी शिकायत न करूँ, रक्खू हरदम ध्यान ||

बड़े-बुजुर्गों से मिले, व्यवहारिक सन्देश |
पालन मन से जो करे, पावे मान विशेष ||

यही सोचकर चुप रहे, दोनों रखते धीर |
हो कैसे युवराज पर, विषय बड़ा गंभीर ||

अरुंधती आई महल, बसता जहाँ तनाव |
कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||

अगले दिन गुरु ने किया, दशरथ का आह्वान |
अवधराज राजी हुए, छिड़ा नया अभियान ||

संदेशे भेजे गए, करना दूजा व्याह |
प्रत्त्युत्तर की देखती, उत्सुक परजा राह ||

पञ्च-नदी बहती जहाँ, प्यारा कैकय देश |
अपनी रूचि से भेजते, दशरथ खुद सन्देश ||

कैकय के महराज को, मिला एक वरदान |
खग की भाषा जानते, अश्वपती विद्वान ||

उनकी कन्या रूपसी, सुघढ़ सयानी तेज |
सात भाइयों में पली, पलकों रखी सहेज ||

माता का सुख न मिला, माता थी वाचाल |
 कैकय से बाहर गई, बीते बाइस साल || 

घटना है इक रोज की, उपवन में महराज |
 चीं-चीं सुनके खुब हँसे, महरानी नाराज ||


भेद खोलने की सजा, राजा के थे प्राण |
इसीलिए रानी करे, कैकय से प्रयाण ||

 भूपति खोलें भेद गर, प्राण जाएँ तत्काल |
रानी जिद छोड़ी नहीं, की थी बहुत बवाल ||

संबंधों की श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |
शर्त सहित सन्देश पर, ले जाता यह दूत ||

मेरी पुत्री का बने, बेटा यदि युवराज |
स्वागत है बारात का, सिद्ध जानिये काज ||

कौशल्या कहने लगी, कोई न अवरोध  |
कैकेयी रानी बने, मेरा नहीं विरोध ||

रानी बनकर आ गई, साथ मंथरा धाय |
जिसके कटु व्यवहार से, महल रहा उकताय ||

चार साल बीते मगर, हुई न मनसा पूर |
सुमति सुमित्रा आ गई, हुए भूप मजबूर ||

कौशल्या की गोद के, सूख गए जो  फूल |
लंकापति रहता उधर, मस्त ख़ुशी में झूल ||

सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |
करे दुश्मनी दुष्टता, दशरथ के भी संग ||

युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |
सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||

कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |
करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||

घायल दशरथ को बचा, पहुंची अवध प्रदेश |
दो वर पाई गाँठ में, बाढ़ा मान विशेष ||

शांता बिन ये शादियाँ,  हो जाती नाकाम |
चौथेपन में अवधपति, केश सफ़ेद तमाम ||

चिंता की अब झुर्रियां, बाढ़ी मुखड़े बीच |
पूर्वकाल के पुण्य-तप,  राखें आँखें मीच ||

1 comment:

  1. चित्त को हर्षित कर देने वाली सुंदर पंक्तियाँ !

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