सर्ग-२
सम्पूर्ण
भाग-1
महारानी कौशल्या-महाराज दशरथ
और
रावण के क्षत्रप
और
रावण के क्षत्रप
सोरठा
रास रंग उत्साह, अवधपुरी में खुब जमा |
उत्सुक देखे राह, कनक महल सजकर खड़ा ||
चौरासी विस्तार, अवध नगर का कोस में |
अक्षय धन-भण्डार, हृदय कोष सन्तोष धन |
पांच कोस विस्तार, कनक भवन के अष्ट कुञ्ज |
इतने ही थे द्वार, वन-उपवन बारह सजे ||
शयन केलि श्रृंगार, भोजन और स्नान कुञ्ज |
झूलन कुञ्ज बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख ||
चम्पक विपिन रसाल, पारिजात चन्दन महक |
केसर कदम तमाल, नाग्केसरी वन विचित्र ||
केसर कदम तमाल, नाग्केसरी वन विचित्र ||
लवंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
वृन्दावन लघुबाग, नेवर जूही माधवी ||
घूमें सुबहो-शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करें देवता ईर्ष्या ||
रावण के उत्पात, उधर झेलते साधुजन |
लगा के बैठा घात, कैसे रोके शत्रु-जन्म ||
मायावी इक दास, आया विचरे अवधपुर |
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||
चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर ||
धरे सर्प का रूप, शाखा पर जाकर डटा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्यदेवता ताड़ते ||
महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफ्कारता |
दशरथ सुन आवाज, शब्द-भेद कर मारते ||
रावण के षड्यंत्र, यदा कदा होते रहे |
जीवन के सद-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला ||
गुरु वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्य देव के तेज से |
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही ||
रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे ||
जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
निकट अवध संभाग, खर दूषण को सौंपता ||
खर दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में ||
त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, हत्या करते साधु की ||
कुत्सित नजर गढ़ाय, ताकें राज्य अवध को |
खबर रहे पहुँचाय, आका लंका-धीश को ||
गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, सूर्य छुपे सप्ताह भर ||
जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे ||
भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||
असली घोडा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या असवार, अश्व छली लेकर भगा ||
धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज ||
कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान ना दीखता ||
समझ गई हालात, बंद पेटिका सुमिर कर |
ढीला करके गात, जगह देखकर कूदती ||
लुढ़क गई कुछ दूर, झाडी में जाकर फंसी ||
चोट लगी भरपूर, होश खोय बेसुध पड़ी ||
मंत्री चतुर सुजान, दौडाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, इक सैनिक ने भाग्य से ||
लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब आय, हाय-हाय करने लगे ||
खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||
रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||
रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||
दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजे धावक ख़ास, समाचार लेने गए ||
सर्ग-२
भाग-2
रावण का गुप्तचर
दोहे
असफल खर की चेष्टा, होकर के गमगीन |
लंका जाकर के कहे, चेहरा लिए मलीन ||
रावण शाबस बोलता, काहे होत उदास |
कौशल्या के गर्भ का, करके पूर्ण विनाश ||
खर बोला भ्राता ज़रा, खबर कहो समझाय |
यह घटना कैसे हुई, जियरा तनिक जुड़ाय ||
रानी रथ से कूद के, खाय चोट भरपूर |
तीन माह का भ्रूण भी, हुआ स्वयं से चूर ||
खर के संग फिर गुप्तचर, भेजा सागर पार |
वह सुग्गासुर जा जमा, शुक थे जहाँ अपार ||
हरकारे वापस इधर, आये दशरथ पास |
घटना सुनकर हो गया, सारा अवध उदास ||
गुरुकुल में शावक मरा, हिरनी आई याद |
अनजाने घायल हुई, चखा दर्द का स्वाद ||
गुरु वशिष्ठ की अनुमती, तुरत चले ससुरार |
कौशल्या को देखते, नैना छलके प्यार ||
संक्रान्ति से सूर्य ने, दिए किरण उपहार |
अति-ठिठुरन थमने लगी, चमक उठा संसार ||
दवा-दुआ से हो गई, रानी जल्दी ठीक |
दशरथ के सत्संग से, घटना भूल अनीक ||
विदा मांग कर आ गए, राजा-रानी साथ |
चिंतित परजा झूमती, होकर पुन: सनाथ ||
धीरे धीरे सरकती, छोटी होती रात |
हवा बसंती बह रही, जल्दी होय प्रभात |
पीली सरसों फूलती, हरे खेत के बीच |
कृषक निराई कर रहे, रहे खेत कुछ सींच ||
तरह तरह की जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |
पशू प्रफुल्लित घूमते, नए सीखते ढंग ||
कौशल्या रहती मगन, वन-उपवन में घूम ||
धीरे धीरे भूलती, गम पुष्पों को चूम ||
कौशल्या के गर्भ की, कैसे रक्षा होय |
दशरथ चिंता में पड़े, आँखे रहे भिगोय ||
गिद्धराज की तब उन्हें, आई बरबस याद |
तोते कौवे की बढ़ी, महल पास तादाद ||
कौशल्या जब देखती, गिद्धराज सा गिद्ध |
याद जटायू को करे, कार्य करे जो सिद्ध ||
यह मोटा भद्दा दिखे, आत्मीय वह रूप |
यह घृणित हरदम लगे, उसपर स्नेह अनूप ||
गिद्ध दृष्टि रखने लगा, बदला बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे कुरूप ||
केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||
सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |
देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||
एक दिवस रानी गई, वन रसाल उल्लास |
सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर सुभाष ||
माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |
ऊपर से अतिशय भला, मन में राखे द्रोह ||
रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||
स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |
भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||
सुग्गासुर की थी नजर, आ जाता था पास |
स्वर्ण-हार हारक उड़ा, झटपट ले आकाश ||
गिद्ध दृष्टि रखने लगा, बदला बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे कुरूप ||
केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||
सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |
देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||
एक दिवस रानी गई, वन रसाल उल्लास |
सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर सुभाष ||
माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |
ऊपर से अतिशय भला, मन में राखे द्रोह ||
रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||
स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |
भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||
सुग्गासुर की थी नजर, आ जाता था पास |
स्वर्ण-हार हारक उड़ा, झटपट ले आकाश ||
सुनकर चीख-पुकार को, वो ही भद्दा गिद्ध ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||
जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||
छुपा सुबाहु के यहाँ, पीछे छोड़ा हार ||
वापस पाकर हार को, होती हर्षित खूब |
राजा का उपहार वो, गई प्यार में डूब ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||
जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||
छुपा सुबाहु के यहाँ, पीछे छोड़ा हार ||
वापस पाकर हार को, होती हर्षित खूब |
राजा का उपहार वो, गई प्यार में डूब ||
नवमी को व्रत पूर्ण कर, कन्या रही खिलाय |
चरण धोय कर पूजती, पूरी-खीर जिमाय ||
सूर्यदेव का ताप भी, दारुण होता जाय |
पाँव इधर भारी हुए, रानी फिर सकुचाय ||
चरण धोय कर पूजती, पूरी-खीर जिमाय ||
सूर्यदेव का ताप भी, दारुण होता जाय |
पाँव इधर भारी हुए, रानी फिर सकुचाय ||
सर्ग-2 भाग-3
जन्म-कथा
कौशल्या भयभीत हो, ताके संबल एक |
जन्म-कथा
कौशल्या भयभीत हो, ताके संबल एक |
रक्षा होवे भ्रूण की, दीखे शत्रु अनेक ||
सारे देवी-देवता, चिंतित रही मनाय |
चार दिनों से अनमयस्क, बैठे मन्दिर जाय ||
जीवमातृका वन्दना, माता के सम पाल |
जीवमंदिरों को सुगढ़, करती सदा संभाल ||
शिव और जीवमातृका
धनदा नन्दा मंगला, मातु कुमारी रूप |
बिमला पद्मा वला सी, महिमा अमिट-अनूप ||
माता करिए तो कृपा, कोई भी तो एक |
शत्रु-दृष्टि से बच रहे, बच्चा मेरा नेक ||
संध्या को रनिवास में, रानी बैठी रोय |
उच्छवासें भरती रही, अँसुवन मुखड़ा धोय ||
दशरथ को दरबार में, हुई घरी भर देर |
कौशल्या ना दीखती, कमरे में अंधेर ||
तभी सुबकने की पड़ी, कानों में आवाज |
दासी को आवाज दे, पूँछें दशरथ राज ||
हुआ उजाला कक्ष में, मुखड़ा लिए मलीन |
रानी लेटी भूमि पर, अतिशय वह गमगीन ||
राजा विह्वल हो गए, गए भूमि पर बैठ |
रानी को पुचकारते, होय प्रेम की पैठ ||
बोलो रानी बेधड़क, खोलो मन के राज |
कौन रुलाया है तुम्हें, किया कौन नाराज ?
मद्धिम स्वर फिर फूटता, हिचकी होती तेज |
अपने बच्चे को भला, कैसे रखूं सहेज ||
राजा सुनकर हर्ष से, रानी को लिपटाय |
कहते चिंता मत करो, करूं सटीक उपाय ||
अगली प्रात: वे गए, गुरु वशिष्ठ के पास |
थे सुमंत भी साथ में, मंत्री सबसे ख़ास ||
बनी योजना इस तरह, दुश्मन धोखा खाय ||
रानी के इस गर्भ को, राखे नजर बचाय ||
अगले दिन दरबार में, आया इक सन्देश |
कौशल्या की मातु को, पीड़ा स्वास्थ-कलेस ||
डोली सजकर हो गई, जल्दी ही तैयार |
छद्म वेश में सेविका, बैठी इक हुशियार ||
वक्षस्थल पर झूलता, वही पुराना हार |
जिसको लेकर था भगा, सुग्गासुर अय्यार ||
सेना के संग हो विदा, डोली चलती जाय |
गिद्धराज ऊपर उड़े, पंखों को फैलाय ||
अभिमंत्रित कर महल को, कौशल्या के पास |
कड़ी सुरक्षा में रखा, दास-दासियाँ ख़ास ||
खर-दूषण के गुप्तचर, छोड़े अपनी खोह |
डोली के पीछे लगे, लेने को तब टोह ||
छद्म-वेश में माइके, धर कौशल्या रूप |
रानी हित दासी करे, अभिनय सहज अनूप ||
वर्षा-ऋतु फिर आ गई, सरयू बड़ी अथाह |
दासी उत्तर में रही, दक्षिण में उत्साह ||
देख सकें औलाद को, हुई बलवती चाह |
दशरथ सबपर रख रहे, चौकस कड़ी निगाह ||
सात मास बीते मगर, गोद-भराई भूल |
कनक महल रक्षित रहा, रानी के अनुकूल ||
नवरात्रि के पर्व में, परजा में उल्लास |
कौशल्या कर न सकी, पर अबकी उपवास ||
शरद पूर्णिमा बीतती, अमृत वर्षा होय |
रानी आँगन में जमी, काया रही भिगोय ||
धीरे धीरे सर्दियाँ , रही धरा को घेर |
शीत लहर चलने लगी, यादें रही उकेर ||
पीड़ा झूठे प्रसव की, होंठ रखे वो भींच |
रानी सिसकारी भरे, जान न पावे नींच ||
रानी हर दिन टहलती, करती नित व्यायाम |
पौष्टिक भोजन खाय के, करे तनिक आराम ||
कोसलपुर में उस तरफ, दासी का वह खेल |
खर-दूषण का गुप्तचर, रहा व्यर्थ ही झेल ||
शुक्ल फाल्गुन पंचमी, मद्धिम बहे बयार |
सूर्यदेव सिर पर जमे, ईश्वर का आभार ||
पुत्री आई महल में, कौशल्या की गोद |
राज्य ख़ुशी से झूमता, छाये मंगल-मोद ||
एक पाख के बाद में, खबर पाय दश-शीस |
खर दूषण को डांटता, सुग्गा सुर पर रीस ||
कन्या के इस जन्म से, रावण पाता चैन |
चेतो क्षत्रपगण सभी, निकसे तीखे बैन ||
छठियारी में सब जमे, पावें सभी इनाम |
स्वर्ण हार पाए वहां, दासी का शुभ काम ||
मालिश करने के लिए, आती थी इक धाय |
छूते ही इक पैर को, कन्या खुब अकुलाय ||
कौशल्या ने वैद्य को, आखिर लिया बुलाय |
जांच परख के बाद में, वैद्य रहा सकुचाय ||
एक पैर में दोष है, कन्या होय अपंग |
सुनकर कडुवे वचन को, कौशल्या थी दंग ||
दूसरा सर्ग समाप्त
बहुत सुंदर ! इतने सुंदर चित्रों और शब्दों से सजी यह पोस्ट सराहनीय है, आभार!
ReplyDeleteआपको सादर बधाई और आभार इस आनंद प्रवाह के लिए....
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