भाग-1
वन-विहार
माता संग गुरुकुल गई, बाढ़े भ्रात विछोह |
दक्षिण की सुन्दर छटा, लेती थी मन मोह ||
गंगा के दक्षिण घने, सौ योजन तक झाड़ |
श्वेत बाघ मिलते उधर, झरने और पहाड़ ||
मन की चंचलता विकट, इच्छा मारे जोर |
रूपा के संग चल पड़ी, रथ लेकर अति भोर |
वटुक-परम पीछे लगा, सबकी नजर बचाय |
तीर धनुष अपना लिए, छुपकर साथे जाय ||
कौला लेकर औषधी, रही भोर से खोज|
जल्दी ही हल्ला हुआ, लगी खोजने फौज ||
राजा-रानी ढूंढते, रमण होय हलकान |
बुद्धिहीन सा बदलता, अपने दिए बयान |
अपने-अपने अश्व ले, चारो दिश सब जाय |
दौड़ा दक्षिण को रमण, घोडा जोर भगाय ||
गुरुकुल पीछे छूटता, आई घटना याद |
बाघ देखने की कही, शांता जब बकवाद ||
पहियों के ताजे निशाँ, पड़े भूमि पर देख |
माथे पर गहरी हुईं, चिंता की आरेख ||
आगे जाकर देखता, झरना बहता जोर |
बन्द रास्ता दीखता, दिखे विचरते ढोर ||
रथ आगे दीखे नहीं, कैसे गया बिलाय |
अनहोनी की सोच के, रहा अँधेरा छाय ||
उतरा घोड़े से मिला, अंगवस्त्र इक श्वेत |
आगे बढ़ने पर दिखा, रथ फिर अश्व समेत ||
उत्सुकता से बढ़ गया, झटपट झाड़ी फांद |
दिखी सामने छुपी सी, एक बाघ की मांद ||
जी धकधक करने लगा, गहे हाथ तलवार |
एक एक कर आ रहे, मन में सकल विकार ||
हिम्मत कर आगे बढ़ा, आया शर सर्राय |
देखा अचरज से उधर, रहा बटुक निअराय ||
बोला तेजी से रमण, परम बटुक दे ध्यान |
काका तेरा है इधर, ले लेगा क्या जान ||
सुनकर के आवाज यह, दोनों बाला धाय |
काका को परनाम है, बोली बाहर आय ||
बैठी थी वे मांद में, नहीं बाघ का खौफ |
कहाँ हकीकत थी पता, करती दोनों ओफ ||
काका जब फटकारते, नैना आये नीर |
गुर्राहट सुन काँपता, अबला देह सरीर ||
झटपट ताने धनुष को, चाचा और भतीज |
बाघ किन्तु दीखा नहीं, रहे हाथ सब मींज ||
जल्दी से चारो चले, अपने रथ की ओर |
चौकन्ने थे कान सब, बिना किये कुछ शोर ||
शांता रूपा जा छुपी, रथ के बीचो-बीच |
खुली जगह पर रथ तुरग, घोडा लाया खींच ||
गुरुकुल में फैली खबर, बोला छोटा शिष्य |
रथ तेजी से उत गया, आँखों देखा दृश्य ||
युद्ध-शास्त्र के चार ठो, चले सोम के मित्र |
पहला मौका पाय के, हरकत करें विचित्र ||
घोड़े की उस लीक पर, पैदल बढ़ते जाँय |
अस्त्रों को हैं भांजते, बढ़ते शोर मचाय ||
उधर बाघ दीखे नहीं, होय गर्जना घोर |
इधर उधर भागें सभी, वहाँ विचरते ढोर ||
घोडा अकुलाये वहाँ, हिनहिनाय मजबूर |
जैसे आता जा रहा, कोई हिंसक क्रूर ||
गिर-कंदर में गूंजती, रह रह कर आवाज |
धरती पर मानो गिरे, महाभयंकर गाज ||
रमण रहा घबराय पर, हिम्मत भरा दिखाय |
उलटे रास्ते की तरफ, रथ को गया बढ़ाय ||
घोडा भगा तीव्रतम, रह रह झटके खाय |
जैसे पीछे हो लगा, इक कोई अतिकाय ||
सचमुच इक अतिकाय था, आगे घेरा डाल |
घोडा ठिठका जोर से, खड़ा सामने काल ||
रमण बोलते बटुक से, बेटा रथ को हाँक |
कन्याओं से फिर कहे, मत बाहर को झाँक ||
शांता रूपा देखती, परदे की थी ओट |
आठ हाथ की देह को, खुद से रही नखोट ||
घिघ्घी दोनों की बंधीं, कसके दालिम -पूत |
तेजी से रथ हांकता, पहली बार अभूत ||
याद रमण को आ गया, दालिम का एहसान |
तीन जान खातिर अड़ा, वह अदना इंसान ||
ध्यान हटाने को रमण, मारा उसको तीर |
काया पकडे हाथ से, देती नख से चीर ||
बोली मैं हूँ ताड़का, मानव खाना काम |
पिद्दी सा तू क्या लड़े, पल में काम तमाम ||
देखा उसको रमण जब, महिला का था रूप |
साफ़-साफ़ अब दिख रही, भद्दी विकट कुरूप ||
घोड़े के संग वीर तब, वापस भागा जान |
अपने पीछे ले लगा, योद्धा बड़ा सयान ||
लम्बे लम्बे ताड़का, दौड़ी रख के पैर |
अट्ठाहास रह रह करे, मानव की ना खैर ||
अन्धकार छाया हुवा, गया नदी में कूद |
रमण मूल पानी बहा, घोड़ा खाई सूद ||
परम बटुक रथ हाँक के, आया बारह कोस |
सोम-मित्र देखे सकल, तब आया था होश ||
जल्दी से रथ में चढो, तनिक करो न देर |
राक्षस इक पीछे पड़ा, होवे ना अंधेर ||
शांता रूपा बोलती, देखी जब वे सोम |
लाख लाख आभार है, ताके ऊपर व्योम ||
काका प्यारे झूझते, देते अपनी जान |
हमें बचाने के लिए, हुवे वहाँ कुर्बान ||
गुरुकुल पहुंची शांता, रूपा रमण समेत |
भय से थर थर कांपती, देखा जिन्दा प्रेत |
रूपा के सौन्दर्य को, ताके सारे मित्र |
सोम ताकता मित्र को, स्थिति बड़ी विचित्र ||
गुरुकुल से उस रात ही, गुरु गए पहुँचाय |
काका की करनी कहें, रहे तनिक सकुचाय ||
यक्ष वंश की ताड़का, उसके पिता सुकेतु |
कठिन तपस्या से मिली, किया पुत्र के हेतु ||
असुर राज से व्याह दी, थी ताकत में चूर |
दैत्य सुमाली से हुवे, संतानें सब क्रूर ||
पुत्री केकेसी हुई, रावण केरी माय ||
मारीच सुबाहु पुत्र दो, पूरा जग घबराय ||
वही ताड़का थी दिखी, सौजा रही सुनाय |
पुत्र रमण की मृत्यु पर, रही खूब इतराय ||
शोक करें किस हेतु हम, हमें गर्व अनुभूत |
रूपा शांता को बचा, लगे देव का दूत ||
मेरा प्यारा बटुक भी, छोटा किन्तु महान |
अच्छी संगत पाय के, बनता बड़ा सयान ||
दालिम से सौजा कहे, मत कर बेटा शोक |
इसी कार्य के वास्ते, आया था इहलोक ||
रो रो कर के शांता, रही स्वयं को कोस |
दुर्घटना में दिख रहा, सारा उसका दोष ||
रोते रोते बीतते, दुःख के हफ्ते चार |
घायल काका आ गया, चमत्कार आभार ||
कूदा पानी में जहाँ, था बहाव अति तेज |
ढीली काया कर दिया, कर मजबूत करेज ||
पानी में बहता गया, पूरी काली रात |
बहुत दूर था आ गया, पीछे छोड़ प्रपात ||
भूला था मैं रास्ता, रहा भटकता देख |
इक सन्यासी थे मिले, माथे चन्दन लेख ||
दर्शन करने जा रहे, श्रींगेश्वर महदेव |
आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव ||
आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव ||
भाग-2
सृंगी ऋषि, कुल्लू घाटी
एवं
सृन्गेश्वर महादेव, मधेपुरा
भगिनी विश्वामित्र की, सत्यवती था नाम |
षोडश सुन्दर रूपसी, हुई रिचिक की बाम ||
दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
बुड्ढा खूसट ना करे, पत्नी की परवाह ||
वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||
सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
कोसी बन क्रोधित हुई, होवे हाहाकार ||
उच्च हिमालय से निकल, त्रिविष्टक को पार |
अंगदेश की भूमि तक, है इसका विस्तार ||
असंतुष्ट सी बह रही, नहीं तनिक भी बोध |
जल-प्लावित करती रहे, जब - तब आवे क्रोध ||
अंगदेश का शोक है, रूप बड़ा विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावे गाल ||
धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव का कर आभार ||
इसी भूमि पर कर रहे, ऋषि अभिनव प्रयोग |
ऋषि विविन्डक हैं यही, विनती करते लोग ||
उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
मन्त्रों की शक्ति प्रबल, सफल सकल प्रयास ||
इन्ही विविन्डक ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
शांता को दे दीजिये, गोद किसी की दान ||
ऋषि विविन्ड़क का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में पड़े, अब भी कई सुबूत ||
जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, सारे वैष्णव शैव ||
लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के महराज |
कल के सृंगी ही बने, देव-स्कर्नी आज ||
अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से हैं एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक ||
हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||
छ सौ तक हैं पालकी, कहते हैं रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, सूखे का जब योग ||
मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
षोडश सुन्दर रूपसी, हुई रिचिक की बाम ||
दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
बुड्ढा खूसट ना करे, पत्नी की परवाह ||
वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||
सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
कोसी बन क्रोधित हुई, होवे हाहाकार ||
उच्च हिमालय से निकल, त्रिविष्टक को पार |
अंगदेश की भूमि तक, है इसका विस्तार ||
असंतुष्ट सी बह रही, नहीं तनिक भी बोध |
जल-प्लावित करती रहे, जब - तब आवे क्रोध ||
अंगदेश का शोक है, रूप बड़ा विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावे गाल ||
धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव का कर आभार ||
इसी भूमि पर कर रहे, ऋषि अभिनव प्रयोग |
ऋषि विविन्डक हैं यही, विनती करते लोग ||
उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
मन्त्रों की शक्ति प्रबल, सफल सकल प्रयास ||
इन्ही विविन्डक ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
शांता को दे दीजिये, गोद किसी की दान ||
ऋषि विविन्ड़क का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में पड़े, अब भी कई सुबूत ||
जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, सारे वैष्णव शैव ||
लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के महराज |
कल के सृंगी ही बने, देव-स्कर्नी आज ||
अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से हैं एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक ||
हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||
छ सौ तक हैं पालकी, कहते हैं रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, सूखे का जब योग ||
मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
वैज्ञानिक अति श्रेष्ठ ये, मिला पिता से बोध ||
गुफा में पानी -नाहन
नाहन के ही पास है, गुफा एक सिरमौर |
जप-तप करते शोध इत, जब सूखे के दौर ||
सृन्गेश्वर की थापना, कम कोसी का कोप |
सृंगी ऋषि ने था किया, भूमि शिवा को सौंप ||
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||
अंगदेश का क्षेत्र यह, महिमामय अस्थान |
शांता-रूपा साथ माँ, आती करय परनाम ||
जप-तप करते शोध इत, जब सूखे के दौर ||
सृन्गेश्वर की थापना, कम कोसी का कोप |
सृंगी ऋषि ने था किया, भूमि शिवा को सौंप ||
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||
अंगदेश का क्षेत्र यह, महिमामय अस्थान |
शांता-रूपा साथ माँ, आती करय परनाम ||
भाग-3
शांता और रिस्य-सृंग
शांता थी गमगीन, खोकर काका को भली |
मौका मिला हसीन, लौटी चेहरे पर हंसी ||
सबने की तारीफ़, वीर रमण के दाँव की |
सहा बड़ी तकलीफ, मगर बचाई जान सब ||
राजा रानी आय, हालचाल लेकर गए |
करके सफल उपाय, वैद्य ठीक करते उसे ||
हुआ रमण का व्याह, नई नवेली दुल्हनी |
पूरी होती चाह, महल एक सुन्दर मिला ||
रहते दोनों भाय, माता बच्चे साथ में |
खुशियाँ पूरी छाय, पाले जग की परंपरा ||
मनसा रहा बनाय, रमण एक सप्ताह से |
सृन्गेश्वर को जाय, खोजे रहबर साधु को ||
शांता जानी बात, रूपा संग तैयार हो |
माँ को नहीं सुहात, कौला सौजा भी चलीं ||
दो रथ में सब बैठ, घोड़े भी संग में चले |
रही शांता ऐंठ, मेला पूरा जो लगा ||
रही सोम को देख, चंपा बेटे से मिलीं |
मूंछों की आरेख, बेटे की लागे भली ||
बेटा भी तैयार, महादेव के दर्श हित |
होता अश्व सवार, धीरे से निकले सभी ||
नौकर-चाकर भेज, आगे आगे जा रहे |
इंतजाम में तेज, सभी जरूरत पूरते ||
पहुंचे संध्या काल, सृन्गेश्वर को नमन कर |
डेरा देते डाल, अगले दिन दर्शन करें ||
सुबह-सुबह अस्नान, सप्त-पोखरों में करें |
पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||
कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा |
सन्यासी को देखते, लगा इन्हें हुस्कारने ||
कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा |
सन्यासी को देखते, लगा इन्हें हुस्कारने ||
रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करे |
हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||
तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |
अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||
गई शांता झेंप, चितवन चंचल फिर चढ़ी |
मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||
ऋषिवर को परनाम, रूपा बोली हृदय से |
शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की ||
हाथ जोड़कर ठाढ़, हुई शांता फिर मगन |
वैचारिक यह बाढ़, वापस भागी शिविर में ||
पूजा लम्बी होय, रानी चंपा की इधर |
शिव को रही भिगोय, दुग्ध चढ़ाये विल्व पत्र ||
रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |
था दुपहर में भोज, विविन्डक आये शिविर ||
गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |
मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||
बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |
बैठा साथे सोम, विविन्डक ऋषिराज के ||
संध्या सारे जाँय, कोसी की पूजा करें |
शांता रही घुमाय, रूपा को ले साथ में ||
अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |
सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं ||
लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें ||
करके देख विचार, दाढ़ी लगती है बुरी ||
खट-पट करे खिडाव, देख सामने हैं खड़े |
छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||
शांता शान्ति छोड़, असमंजस में जा पड़ी |
जिभ्या चुप्पी तोड़, करती है प्रणाम फिर ||
मैं सृंगी हूँ जान, ऋषी राज के पुत्र को |
करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||
मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |
सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||
पिता बड़े विद्वान, मिले विरासत में मुझे |
उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी है बड़ी ||
कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रात दिन |
पूरे कौन सवाल, दुनिया के फिर करेगा ||
बदले दृष्टिकोण, रिस्य सृंग का प्रवचन |
बाहें रही मरोड़, हाथ जोड़ प्रणाम कर ||
लौटी रूपा देख, बढे सृंग आश्रम गए |
अपनी जीवन रेख, शांता देखे ध्यान से ||
लौट शिविर में आय, अपने बिस्तर पर पड़ी |
कर कोशिश विसराय, सृंगी मुख भूले नहीं ||
भाग-4
शांता का सन्देश
सृन्गेश्वर से आय के, हुई जरा चैतन्य |
छोड़ विषय को सोचने, लगी शांता अन्य |
सोम हुवे युवराज जब, उसको आया ख्याल ||
बिना पुत्र के है बुरा, अवध राज का हाल ||
गुरु वशिष्ठ को भेजती, अपना इक सन्देश |
तीव्रगति से पहुँचता, शांता दूत विशेष ||
रिस्य सृंग के शोध का, था उसमें उल्लेख |
गुरु वशिष्ठ हर्षित हुए, विषयवस्तु को देख ||
चितित दशरथ को बुला, बोले गुरू वशिष्ठ ||
हर्षित दशरथ कर रहे, कार्य सभी निर्दिष्ट ||
तैयारी पूरी हुई, रथ को रहे उडाय |
रिस्य सृंग के सामने, झोली को फैलाय ||
हमको ऋषिवर दीजिये, अब अपना आशीष |
चरणों में हैं लोटते, पटके अपना शीश ||
राजन धीरज धारिये, काहे होत अधीर |
सृन्गेश्वर को पूजिये, वही हरेंगे पीर ||
मैं तो साधक मात्र हूँ, शंकर ही हैं सिद्ध |
दोनों हाथों से पकड़, बोले उठिए वृद्ध ||
सात दिनों तक आपकी, करूँगा पूरी जाँच |
सृन्गेश्वर के सामने, शिव पुराण नित बाँच ||
सात दिनों का तप प्रबल, औषधिमय खाद्यान |
दशरथ पाते पुष्टता, मिटे सभी व्यवधान ||
सूची इक लम्बी लिखी, सृंगी देते सौंप ||
बुड्ढी काया में दिखी, तरुणों जैसी चौप ||
कुछ प्रायोगिक कार्य हैं, कोसी की भी बाढ़ |
इंतजाम करके रखो, आऊं माह असाढ़||
ख़ुशी-ख़ुशी दशरथ गए, रौनक रही बताय |
देरी के कारण उधर, रानी सब उकताय ||
अवधपुरी के पूर्व में, आठ कोस पर एक |
बहुत बड़े भू-खंड पर, लागे लोग अनेक ||
सुन्दर मठ-मंदिर बना, पोखर बना विशेष |
हवन कुंड भी सज रहा, पहुंचा सारा देश ||
थी अषाढ़ की पूर्णिमा, पुत्र-काम का यग्य |
सुमिर गजानन को करें, रिस्य सृंग से विज्ञ ||
शांता भी आई वहां, रही व्यवस्था देख |
फुर्सत में थी बाँचती, सृंगी के अभिलेख ||
समझे न जब भाष्य को, बिषय तनिक गंभीर |
फुर्सत मिलते ही मिलें, सृंगी सरयू तीर ||
देखें जब अभ्यासरत, रिस्य रिसर्चर रोज |
नए-नए सिद्धांत को, प्रेषित करते खोज ||
समझे न जब भाष्य को, बिषय तनिक गंभीर |
फुर्सत मिलते ही मिलें, सृंगी सरयू तीर ||
देखें जब अभ्यासरत, रिस्य रिसर्चर रोज |
नए-नए सिद्धांत को, प्रेषित करते खोज ||
प्रेम प्रस्फुटित कब हुआ, जाने न रिस्य सृंग |
वहीँ किनारे भटकता, प्रेम-पुष्प पर भृंग ||
कई दिनों तक यग्य में, रहे व्यस्त सब लोग |
नए चन्द्र दर्शन हुए, आया फिर संयोग ||
पूर्णाहुति के बाद में, अग्नि देवता आय |
दशरथ के शुभ हाथ में, रहे खीर पकडाय ||
दशरथ ग्रहण कर रहे, कहें बहुत आभार |
आसमान में देवता, करते जय जयकार ||
कौशल्या करती ग्रहण, आधी पावन खीर |
कैकेयी भी ले रही, होकर बड़ी अधीर ||
दोनों रानी ने दिया, आधा आधा भाग |
रहा सुमित्रा से उन्हें, अमिय प्रेम अनुराग ||
चैत्र शुक्ल नवमी तिथी, प्रगट हुवे श्री राम |
रही दुपहरी खुब भली, तनिक शीत का घाम ||
गोत्र दोष को काटते, रिस्य सृंग के मन्त्र |
कौशल्या सुदृढ़ करे, अपना रक्षा तंत्र ||
कैकेयी के भरत भे, हुई मंथरा मग्न |
हुवे सुमित्रा के युगल,लखन और शत्रुघ्न ||
अंग अंग लेकर विकल, गई शांता अंग |
और इधर रिस्य सृंग की, शोध हो रही भंग ||
रविकर जी,यहाँ आकर तो आनंद आ गया है जी.
ReplyDeleteमौका मिलने पर फिरसे पढ़ने आऊँगा.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
सर मैं आपके ब्लॉग का नियमित पाठक हूँ और मुझे आपकी लिखने की कला काफी अच्छी लगती है। आप मेरी भी लिखी हुई कविता पढ़ सकतें है यहाँ क्लिक कर
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