सर्ग-3
बाला-शांता
भाग-1
सम गोत्रीय विवाह
फटा कलेजा भूप का, सुना शब्द विकलांग |
ठीक करो मम संतती, जो चाहे सो मांग ||
भूपति की चिंता बढ़ी, छठी दिवस से बोझ |
तनया की विकृति भला, कैसे होगी सोझ ||
रात-रात भर देखते, उसकी दुखती टांग |
सपने में भी आ जमे, नटनी करती स्वांग ||
गुरु वशिष्ठ ने एक दिन, भेजा भूप बुलाय |
सह सुमंत आश्रम गए, बैठे शीश नवाय ||
सकल जगत के लो बुला, चर्चित वैद्य-हकीम |
सम्मलेन कर लो खुला, बंधन मुक्त असीम ||
कर के दोनों दंडवत, लौटे निज दरबार |
भेजे हरकारे सकल, समझाकर तिथि-वार ||
नीमसार की भूमि पर, मंडप बड़ा सजाय |
श्रावण की थी पूर्णिमा, रही चांदनी छाय ||
रक्षा बंधन पर्व कर, जमे चिकित्सक वीर |
जांच कुमारी की करें, होता विकल शरीर ||
विषय बहुत ही साफ़ था, वक्ता थे शालीन |
सबका क्रम निश्चित हुआ, हुए कर्म में लीन ||
उदघाटन करने चले, अंग-देश के भूप |
नन्हीं बाला का तभी, देखा सौम्य स्वरूप ||
लगी भली वह बालिका, मुख पर छाया तेज |
पैर धरा पर न पड़े, राखो हृदय सहेज ||
स्वागत भाषण पढ़ करें, राज वैद्य अफ़सोस |
जन्म कथा सारी कही, रहे स्वयं को कोस ||
वक्ताओं ने फिर रखी, वर्षों की निज खोज |
सुबह-सुबह चलती रही, परिचर्चा कुछ रोज ||
दूर दूर से आ रहे, प्रतिदिन विषम मरीज |
शिविरों में नित शाम को, करें बैद्य तजबीज ||
दूर दूर से आ रहे, प्रतिदिन विषम मरीज |
शिविरों में नित शाम को, करें बैद्य तजबीज ||
चौथे दिन के सत्र में, बोले वैद्य सुषेन |
गोत्रज व्याहों की विकट, महा विकलता देन ||
राजा रानी अवध के, हैं दोनों गोतीय |
अल्पबुद्धि-विकलांगता, सम दुष्फल नरकीय ||
गुण-सूत्रों की विविधता, बहुत जरूरी चीज |
गोत्रज में कैसे मिलें, रहे व्यर्थ क्यूँ खीज ||
गोत्रज दुल्हन जनमती, एकल-सूत्री रोग |
दैहिक सुख की लालसा, बेबस संतति भोग ||
साधु साधु कहने लगे, सब श्रोता विद्वान |
सत्य वचन हैं आपके, बोले वैद्य महान ||
अब तक के वक्ता सकल, करके अति संकोच |
मूल विषय को टाल के, रखें अन्य पर सोच ||
सारे तर्क अकाट्य थे, छाये वहां सुषेन |
भारी वर्षा थम गई, नीचे बैठी फेन ||
आदर से दशरथ कहें, प्रभू दिखाओ राह |
विषम परिस्थिति में हुआ, कौशल्या से ब्याह ||
नहीं चिकित्सा शास्त्र में, इसका दिखे उपाय |
गोत्रज जोड़ी अनवरत, संतति का सुख खाय ||
गोत्रज जोड़ी अनवरत, संतति का सुख खाय ||
व्याख्यान अपना ख़तम, करते वैद्य सुषेन |
ऋषी बिबंडक खड़े हो, बोले ऐसे बैन ||
एक गोत्र की संतती, झेले अगर विकार |
गोद किसी की दीजिये, सुधरे शुभ आसार ||
प्रभु की इच्छा से मिटें, कुल शारीरिक दोष |
धन्यवाद ज्ञापन हुआ, होती जय जय घोष ||
अंगराज श्री रोम्पद, आये दशरथ पास |
अभिवादन करके कहें, करिए नहीं निराश ||
ब्याह हुए बारह बरस, सूनी अब भी गोद |
बेटी प्यारी सौंपिए, बाढ़े मंगल-मोद ||
दशरथ अब भी सोच में, कैसे दे दें गोद |
दिल को अपने गोद के, करें कसक अनुमोद ??
कौशल्या हामी भरी, अंगदेश जा दूत |
महरानी चम्पा बुला, करती दिल मजबूत ||
अंगराज भी खुश हुए, रानी को बुलवाय |
रस्म गोद करके सफल, उनकी गोद भराय ||
अंग-विकृत वो अंगजा, कर ली अंगीकार |
अंगराज दशरथ चले, फिर सुषेन के द्वार ||
अंग-विकृत वो अंगजा, कर ली अंगीकार |
अंगराज दशरथ चले, फिर सुषेन के द्वार ||
तब सुषेन के शिविर में, पहुंचे अवध नरेश |
चेहरे पर चिंता बड़ी, चर्चा चली विशेष ||
बोले वैद्य सुषेन जी, सुनिए हे महिपाल |
ऐसी संताने सहें, बीमारी विकराल ||
गोत्रज शादी को भले, भरसक दीजे टाल |
मंजूरी करती खड़े, टेढ़े बड़े सवाल ||
मामा लेवे गोद जो, कर दे कन्या-दान |
उल्टा हाथ गुमाय के, खींचें सीधे कान ||
मिटते दारुण दोष पर, ईश्वर अगर सहाय |
सबसे उत्तम ब्याह में, दूरी रखो बनाय ||
गोत्र-प्रांत की भिन्नता, नए नए गुण देत |
बल बुद्धि विद्या प्रबल, साहस रूप समेत ||
सहज रूप से सफल हो, रावण का अभियान |
किया दूर रनिवास से, राजा को यह ज्ञान ||
आई रानी अंग से, लाया दूत बुलाय |
कौशल्या के अंग से, अमृत बहता जाय ||
लगे तीन दिन गोद में, साइत शुभ आसन्न |
नया देश माता नई, हुई रीति संपन्न ||
जन्म-दायिनी छूटती, रोवे बुक्का-फार |
दिल का टुकड़ा सौंप दी, महिमा अपरम्पार ||
आठ माह की उम्र में, बदला घर परिवार |
अंग देश को चल पड़ी, सरयू अवध विसार ||
कौला कौला सी चली, नव-कन्या के संग |
आठ माह की उम्र में, बदला घर परिवार |
अंग देश को चल पड़ी, सरयू अवध विसार ||
कौला कौला सी चली, नव-कन्या के संग |
जननी आती याद तो, करती कन्या तंग ||
भाग-2
कौला और दालिम की कथा
एवं
कन्या का नामकरण
कौशल्या दशरथ कहें, रुको और महराज |
चंपा रानी रोम्पद, ज्यों चलते रथ साज ||
राज काज का हो रहा, मित्र बड़ा नुक्सान |
चलने की आज्ञा मिले, हमको काल्ह विहान ||
सुबह सुबह दो पालकी, दशरथ की तैयार |
अंगराज रथ पर हुए, मय परिवार सवार ||
दशरथ विनती कर कहें, देते एक सुझाव |
सरयू में तैयार है, बड़ी राजसी नाव ||
धारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |
चार दिनों की यात्रा, काहे होत अधीर ||
चंपानगरी दूर है, पूरे दो सौ कोस |
उत्तम यह प्रस्ताव है, दिखे नहीं कुछ दोष ||
पहुंचे उत्तम घाट पर, थी विशाल इक नाव |
नाविक-गण सब विधि कुशल, जाने नदी बहाव ||
बैठे सब जन चैन से, नाव बढ़ी अति मंद |
घोड़े-रथ तट पर चले, लेकर सैनिक चंद ||
धीरे धीरे गति बढ़ी, सीमा होती पार |
गंगा में सरयू मिली, संगम का आभार ||
चार घरी रूककर वहां, पूजें गंगा माय |
सरयू को परनाम कर, देते नाव बढ़ाय ||
हर्ष और उल्लास का, देखा फिर अतिरेक |
नगर रास्ते में मिला, अंगदेश का एक ||
धरती पर उतरे सभी, आसन लिया जमाय |
नई कुमारी का करें, स्वागत जनगण आय |
लगे कुमारी खुब प्रसन्न, कौला रखती ख्याल |
धरती पर धरती कदम, रानी रही संभाल ||
वैद्यराज की औषधी, वह गुणकारी लेप |
रस्ते भर मलती चली, तीन बार खुब घेप ||
आठ माह की बालिका, मंद-मंद मुसकाय |
कंद-मूल फल प्रेम से, अंगदेश के खाय |
रानी के संग खेलती, बाला भूल कलेश ||
राज काज के काम कुछ, निबटा रहे नरेश |
एक अनोखा वाद था, नगर प्रमुख के पास |
बात सौतिया डाह की, सौजा करती नाश ||
सौतेला इक पुत्र है, सौजा के दो आप |
इक खाया कल बाघ ने, करती घोर विलाप ||
रो रो कर वह बक रही, सौतेले का दोष |
यद्दपि वह घायल पड़ा, बेहद है अफ़सोस ||
जान लड़ा कर खुब लड़ा, हुआ किन्तु बेहोश |
बचा लिया इक पुत्र को, फिर भी न संतोष ||
बड़ी दिलेरी से लड़ा, देखा चौकीदार |
बड़े पुत्र को ले भगा, फिर भी वह खूंखार ||
सौजा को विश्वास है, देने को संताप |
सौतेले ने है किया, घृणित दुर्धुश पाप ||
घर न रखना चाहती, वह अब अपने साथ |
ईश्वर की खातिर अभी, न्याय कीजिए नाथ ||
दालिम को लाया गया, हट्टा-कट्टा वीर |
चेहरे पर थी पीलिमा, घायल बहुत शरीर ||
सौजा से भूपति कहें, दालिम का अपराध |
नगर निकाला सामने, किन्तु रहे हितसाध ||
दालिम से मुड़कर कहें, जा जहाज में बैठ |
छू ले माता के चरण, बेमतलब मत ऐंठ ||
राजा पक्के पारखी, है हीरा यह वीर |
पुत्री का रक्षक लगे, कौला की तकदीर ||
सेनापति से यूँ कहें, रुको यहाँ कुछ रोज |
नरभक्षी से त्रस्त जन, करिए उसकी खोज ||
जीव-जंतु जंगल नदी, सागर खेत पहाड़ |
बंदनीय हैं ये सकल, इनको नहीं उजाड़ ||
रक्षा इनकी जो करे, उसकी रक्षा होय |
शोषण गर मानव करे, जाए जल्द बिलोय ||
केवल क्रीडा के लिए, मत करिए आखेट |
भरता शाकाहार भी, मांसाहारी पेट ||
जीव जंतु वे धन्य जो, परहित धरे शरीर |
हैं निकृष्ट वे जानवर, खाएं उनको चीर ||
नरभक्षी के लग चुका, मुँह में मानव खून |
जल्दी उसको मारिये, जनगण पाय सुकून ||
अगली संध्या में करें, रजधानी परवेश |
अंग-अंग प्रमुदित हुआ, झूमा पूरा देश ||
गुरुजन का आशीष ले, मंत्री संग विचार |
नामकरण की शुभ तिथी, तय अगले बुधवार ||
नामकरण के दिन सजा, पूरा नगर विशेष |
ब्रह्मा-विष्णु देखते, देखें उमा महेश ||
महा-पुरोहित कर रहे, थापित महा-गणेश |
राजकुमारी आ गई, आये अतिथि विशेष ||
रानी माँ की गोद में, चंचल रही विराज |
टुकुर टुकुर देखे सकल, इत-उत होते काज ||
कौला दालिम साथ में, राजकुमारी पास |
हम दोनों कुछ ख़ास हैं, करते वे एहसास ||
महापुरोहित बोलते, हो जाओ सब शांत |
शान्ता सुन्दर नाम है, फैले सारे प्रांत ||
शान्ता -शान्ता कह उठा, वहाँ जमा समुदाय |
मात-पिता प्रमुदित हुए, कन्या खूब सुहाय ||
कार्यक्रम सम्पन्न हो, विदा हुए सब लोग |
पूँछे कौला को बुला, राजा पाय सुयोग ||
शान्ता की तुम धाय हो, हमें तुम्हारा ख्याल |
दालिम लगता है भला, रखे तुम्हे खुशहाल ||
तुमको गर अच्छा लगे, दिल में तेरे चाह |
सात दिनों में ही करूँ, तेरा उससे व्याह ||
कौला शरमाई तनिक, गई वहाँ से भाग |
दालिम की किस्मत जगी, बढ़ा राग-अनुराग ||
दोनों की शादी हुई, चले एक ही राह |
शान्ता के प्रिय बन रहे, राजा केर पनाह ||
तीसरा सर्ग समाप्त
तीसरा सर्ग समाप्त
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबेहतरीन... पर रविन्कर जी आपकी ये पोस्ट सही मायने में भाष्य चाहती है...
ReplyDeleteहां राम की एक बहन थी जो शायद श्रिन्गी रिशि को ब्याही थी...परन्तु अधिक वर्णन नहीं मिलता ....यार रविकर कहां से इतनी बडी खोज कर लाये....बधाई...
ReplyDelete--एक सवाल यह भी उठेगा कि फ़िर चारों पुत्र विकलान्ग क्यों नहीं थे...