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Sunday, 17 July 2011

याद प्रिय आते रहो कुछ इस तरह,
मन-समंदर में कि जैसे  ज्वार आये|

प्रत्येक दिन एक बार हौले से सही,
मास में पुरजोर प्रिय दो बार आये |

पूर्णिमा की चांदनी अथवा अमावस,
तार  के  बेतार   से   टंकार   आये |

सीपियों-शंखो की  भाषा में लिखे,
हृदय-तट पर प्यार फैले प्यार आये |

किरणे-उजाले - धूप-तारे - चांदनी,
की शिकायत तू मिटा दे  द्वार आये|

काम का बन्दा,  नकारा  हो चुका, 
शब्द-भावों पर जरा अधिकार आये |

7 comments:

  1. सुन्दर भाव प्रस्तुति .ज्वार के उबाल सी ,पूर्णिमा के उजास सी .

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  2. वाह क्या अंदाज है.अति सुंदर रविकर जी.

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  3. सीपियों-शंखो की भाषा में लिखे,
    हृदय-तट पर प्यार फैले प्यार आये |


    aaki ghazlon ke sabse acchi baat mujhe lagti hai..wo hai bhashaon ke atikraman se door hain..hindi ke chunida behtarin sahityik shabdon revise hote rahte hain..aapka protsahan mujhe nirantar milta rahta hai..iske liye dhnyawad..sadar pranam ke sath

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  4. किरणे-उजाले - धूप-तारे - चांदनी,
    की शिकायत तू मिटा दे द्वार आये|
    bahut sunder
    rachana

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  5. पूर्णिमा की चांदनी अथवा अमावस,
    तार के बेतार से टंकार आये |

    बहुत खूबसूरत भाव

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  6. सीपियों-शंखो की भाषा में लिखे,
    हृदय-तट पर प्यार फैले प्यार आये |
    लाजवाब। शुभकामनायें।

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  7. रवि जी आप अपनी रचना में शब्द और भाव इस ख़ूबसूरती से पिरोते हैं के पढ़ते वक्त अनायास मुंह से वाह वाह निकलता है...

    नीरज

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