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Friday 30 September 2011

चने लोहे = दुखी-दोहे

पति-अनुनय  को कह धता, कुपित होय तत्काल |
बरछी-बोल  कटार-गम, दरक जाय मन-ढाल ||

पत्नी पग-पग पर परे,  पति पर न पतियाय |
श्रीमन का मन मन्मथा, श्रीमति मति मटियाय ||

हार गले की फांस है, किया विरह-आहार |
हारहूर  से  तेज  है,  हार   हूर  अभिसार ||
हारहूर=मद्य               आहार-विरह=रोटी के लाले
 
 चमकी चपला-चंचला , छींटा छेड़ छपाक |
 तेज तड़ित तन तोड़ती,  तददिन तमक तड़ाक |

मुमुक्षता मुँहबाय के, माया मोह मिटाय |
मृत्यु-लोक से जाय के, महबूबा चिल्लाय ||
 मुमुक्षता=मुक्ति की अभिलाषा का भाव 

पन-घट   पर का    घट-पना,  परकाकर   के   खूब |
घरजाया  -  घोटक  -  घटक,  डिंगल - डीतर  डूब ||
डिंगल=दूषित नीच अधम  
डीतर=पीछा करने वाला
परका=चस्का लगा
घरजाया=घर का दास
घोटक= घोड़ा
घटक=बिचौलिया, विवाह सम्बन्ध निश्चित कराने वाला |

5 comments:

  1. लगता है आपको शब्दों की गेंदें बना कर इधर-उधर उछालने में बहुत रस आता है... पढ़ने में थोडा श्रम करना पड़ा पर सार्थक रहा.

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  2. अच्छी प्रस्तुति...अनीता जी की बात से सहमत हूँ...
    पढ़ने में थोडा श्रम करना पड़ा पर सार्थक रहा.

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  3. सरस और व्यंग्यपूर्ण!

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  4. जन पदीय भाषा का चमत्कार .सुन्दर प्रस्तुति .

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  5. हार गले की फांस है, किया विरह-आहार |
    हारहूर से तेज है, हार हूर अभिसार ||
    अति सुन्दर अनुप्रासिक प्रस्तुति .बधाई .

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